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उत्पन्न तनावों का सामना करने एवं उनका निवारण करने में सफल होता है। मन विकल्पों में उलझा रहता है और उन विकल्पों का निरसन मन की एकाग्रता से ही संभव है! एकाग्रता का अर्थ है एक समय में एक ही चिन्तन मे लीन रहना, अर्थात् विकल्पों से मुक्त होने का अभ्यास करना वस्तुतः ध्यान की जितनी भी विधियां हैं, उनका एक मात्र लक्ष्य यही है कि मन की एकाग्रता हो। एकाग्रता ही व्यक्ति को वर्तमान क्षण में जीना सिखाती है। व्यक्ति या तो भविष्य की कल्पनाओं में खोया रहता है, जिनके पूर्ण न होने पर या जिनकी पूर्ति में बाधाएं उत्पन्न होने पर मन तनावग्रस्त हो जाता है या फिर भूतकाल के दुःखद क्षणों में खोया रहता है जो उसके मन को अशांत एवं तनावग्रस्त बना देता है। कभी-कभी तो व्यक्ति अपने अतीत में इतना डूब जाता है कि वह अपना मानसिक संतुलन भी खो देता है। जैनदर्शन के अनुसार एकाग्रता वर्तमान क्षण में रहने की विधि है, जो कि सफल और सुखी जीवन का एक आवश्यक गुण है। एक जैन कवि ने कहा है - "गत वस्तु सोचे नहीं, आगत वांच्छा नाय। वर्तमान में वर्ते सो ही, ज्ञानी जग माय ।" आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने भी कहा है खणं ! जाणहि से पण्डिए। आचारांग में अन्यत्र यह भी लिखा है "ज्ञानी अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पना-मुक्त महर्षि ही अनुपश्यी होता है और कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। तात्पर्य है कि वर्तमान का अनुपश्यी ही मन की चंचलता को क्षीण कर डालता है। एकाग्रता से किया गया कार्य सदैव सफल होता है। ध्यान की जितनी भी प्रक्रिया है वे सब मन की एकाग्रता पर ही निर्भर है। जब तक मन की एकाग्रता नहीं होगी, ध्यान साधना सफल नहीं होगी। वस्तुतः मन की एकाग्रता के विकास के लिए ही ध्यान साधना के प्रयोग किए जाएँ तो तनाव को उत्पन्न करने वाले कारक समाप्त हो
78 आचारांगसूत्र - 1/3/3/60
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