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नहीं हुए, तो सम्पूर्ण साधना निरर्थक है।" माया गति को ही नहीं माया सौभाग्य को भी नष्ट कर दुर्भाग्य को जन्म देती है।
जैनदर्शन के अनुसार माया कपट वृत्ति है। चार कषायों में यह भी एक प्रमुख कषाय है। इसे दूसरों को धोखा देने की वृत्ति कही जाती है। एक दृष्टि से माया द्वेष का ही एक रूप है। दूसरों को मिथ्या जानकारी देना, अपने दुर्गुणों को छिपाना और दूसरों के दुर्गुणों को व्यक्त करना भी कपटवृत्ति का ही एक रूप है। इससे जीवन में दोहरापन आता है। व्यक्ति करता कुछ है, और दिखाता कुछ है, बस इसी में तनाव का जन्म होता है। व्यक्ति को सदैव यह भय बना रहता है कि उसकी यथार्थता कहीं उजागर न हो जाए, अतः वह सदैव ही उस दोहरेपन को या कपटवृत्ति को ओढ़े रहता है और इस कारण तनावग्रस्त बना रहता है। जब व्यक्ति कपटवृत्ति या माया रूपी कषाय से युक्त होगा तब वह अनिवार्य रूप से तनावग्रस्त होगा, क्योंकि जहाँ भी यथार्थता को छुपाने की वृत्ति होती है, वहाँ उसके उजागर होने का भय बना रहता है और जहां भय है, वहां अनिवाग्र रूप से तनाव रहता ही है।
इस प्रकार माया या कपटवृत्ति तनाव का ही हेतु है और तनावों से मुक्त होने के लिए कपटवृत्ति का त्याग आवश्यक है।
माया केवल स्वयं को ही तनावग्रस्त नहीं करती वरन् उसे भी तनावग्रस्त कर देता है जिसके साथ कपट किया है। दशवैकालिक सूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि -माया की मित्रता से अच्छे सम्बन्धों का नाश होता है।83 जब मित्र को, परिजनों को या सम्बन्धियों को यह पता चलता है कि उसी के किसी अपने ने उसे धोखा दिया है तो उनको बहुत चोट या आघात पहुंचता है।
" माई पमाई पुण एइ गल्भं .......... -आचारांगसूत्र -1/3/1
दुर्भाग्यजननी माया, माया दुर्गतिकारणम् – विवेकविलास 83 दशवैकालिकसूत्र - 8/38
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