SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 होती, जैसे गोबर के कण्डे की अग्नि राख से ढंकी रहती है, उसी प्रकार संज्जवलन मान में व्यक्ति अहंकार से मुक्त विनयशीलता से युक्त तो होता है, किन्तु उसके अन्तस् में अहंकार का भाव पूरी तरह से समाप्त नहीं होता है, मात्र तनाव का आवेग अव्यक्त रूप से चेतना में अपना अस्तित्व रखते हैं। इस संज्जवलन मान में व्यक्ति अपनी विनयशीलता को प्रकट तो करता है, किन्तु उस विनय के पीछे उसमें अपने को विनीत दिखाने और कहलाने की भावना छिपी होती है। दूसरे शब्दों में मान की अपेक्षा तो रहती है, किन्तु उसके लिए अभिव्यक्ति नहीं करता। इस अवस्था में मान छद्म रूप में विनय का लबादा ओढ़े बैठा रहता है। इस प्रकार इस अवस्था में चेतना में तनाव की उपस्थिति तो नहीं रहती, किन्तु प्रसंग आने पर या निमित्त पाकर तनावग्रस्त होने की आंशिक सम्भावना बनी रहती है। माया – कषाय रूप मनोवृत्तियाँ मानसिक विकारों के कारण उत्पन्न होती हैं और तनाव का कारण बनती हैं। इन कषायों को व्यक्ति अपनी इच्छा पूर्ति के लिए व्यवहार में लाता है। अपनी इच्छा पूर्ति के लिए व्यक्ति सबसे अधिक उपयोग माया कषाय का करता है। माया शब्द मा + या से ना है। 'या' का अर्थ 'जो' तथा 'मा' का अर्थ 'मत या नहीं है। इस प्रकार जो नहीं है, उसको प्रस्तुत करना माया है। दूसरे शब्दों में कहें तो कपटाचार, धोखा, विश्वासघात आदि माया है और माया करनेवाले को मायावी कहते हैं। अणगार-धर्मामृत में मायावी का निम्न स्वरूप बताया गया है – 'जो मन में होता है, वह कहता नहीं, जो कहता है वह करता नहीं, वह मायावी होता है। 80 आचारांग में कहा गया है - मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार–परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-रूपी मनोभाव कृश 80 थो वाचा स्वमपि स्वान्तं ............. –धर्मामृत, अ.6, गा.19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy