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________________ 134 पाए या नहीं पर स्वयं तनावग्रस्त हो जाता है। 64 हम यह भी कह सकते हैं कि तनावयुक्त (क्रोधी) व्यक्ति दीपक की बाती के समान होता है, जो दूसरे को जला पाएं या नहीं पर स्वयं तो जलती है। 'मनोविज्ञान में क्रोध को संवेग कहा गया है। 65 जब संवेग अधिक उत्तेजित होते हैं तो शरीर में परिवर्तन घटित होते हैं। 'क्रोध आने पर शक्ति का हास होता है, ऊर्जा नष्ट होती है, बल क्षीण होता है। क्रोध जितना तीव्र होगा, व्यक्ति के तनाव की स्थिति भी उतनी अधिक तीव्र होगी। आवेग जितने मन्द होंगे, व्यक्ति के तनाव का स्तर भी उतना ही मन्द होगा और तनावमुक्त स्थिति को पाने में सफल होगा। क्रोध के आवेग की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर चार भेद किए हैं और इन्हीं से व्यक्ति के तनावयुक्त स्तर को भी समझना चाहिए। 1. अनन्तानुबन्धी क्रोध - यह क्रोध की तीव्रतम स्थिति है। पत्थर में पड़ी दरार के समान किसी के प्रति एक बार क्रोध उत्पन्न होने पर जीवन भर शांत नहीं होता है। क्रोध की इस स्थिति में व्यक्ति कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर पाता है। मन में क्रोध रूपी अग्नि जलती रहती है, जिससे तनावमुक्ति के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। व्यक्ति का यह क्रोध उसे इतना तनावग्रस्त कर देता है कि वह जीवन पर्यन्त तनावमुक्त नहीं हो सकता है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि क्रोध का होना स्वयं अपने आपमें तनाव है, तो भी प्रश्न उठता है कि क्रोधजन्य तनाव जब उत्पन्न होता है तो क्रोध की बाह्य प्रतिक्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं। शरीर, स्वजन, सम्पत्ति आदि में व्यक्ति की आसक्ति प्रगाढ़ होती है। उसे प्रिय के संयोग की प्राप्ति में बाधक तत्त्व अप्रिय " ज्ञानार्णव, सर्ग-19, गाथा-6 65 शिक्षा मनोविज्ञान, प्रो. गिरधारीलाल श्रीवास्तव, पृ. 181 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, साध्वी हेमप्रभा, पृ. 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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