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________________ 135 लगते हैं और उनके प्रति अनन्तानुबंधी क्रोध पैदा होता है। ऐसा व्यक्ति सिर्फ अपने छोटे से स्वार्थ या सुख के लिए दूसरों को अधिकतम दुःख देता है, दूसरों की पीड़ा को देखकर खुश होता है। वह स्वयं भी तनावयुक्त रहता है व दूसरों को भी तनावग्रस्त बनाता है। उसकी अपनी विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप वह कभी भी तनावमुक्त नहीं हो पाता है! तनाव के इस स्तर पर उसके सोचने-समझने की क्षमता प्रायः समाप्त हो जाती है। वह क्रोध में प्रतिक्रियाएं भी करता रहता है और उसकी चित्तवृत्ति क्रोध से आक्रान्त बनी रहती है। 2. अप्रत्याख्यानी क्रोध - जब क्रोध चैत्तसिक स्तर पर तीव्रतर होता है तो वह अप्रत्याख्यानी क्रोध है। इसमें व्यक्ति क्रोध की बाह्य प्रतिक्रियाएं तो कम करता है, किन्तु चित्त क्रोध से पूरी तरह आक्रान्त रहता है। दूसरों के प्रति ईर्ष्या, जलन, और विद्वेष की भावना इसके प्रमुख लक्षण हैं। वह केवल लोक-लाज से बाह्य प्रतिक्रियाओं को रोकता है किन्तु अन्तस्थ में तो तनावग्रस्त रहता है। यह स्थिति चैत्तसिक स्वास्थ्य के लिए अधिक खतरनाक होती है, क्योंकि इसमें 'दमन' की ही मुख्यता होती है। अप्रत्याख्यानी क्रोध का मूल कारण मोह या राग है। तनाव उत्पत्ति में भी मुख्य हेतु राग ही होता है। जब किसी अपने या प्रिय का कोई अपमान करता है, तो उसके चित्त में जो विक्षोभ उत्पन्न होता है, वह अप्रत्याख्यानी क्रोध होता है। अप्रत्याख्यानी क्रोध में पर के प्रति रागात्मकता अधिक होती है। यह राग-भाव उसके मन में तनाव उत्पन्न करने का मुख्य तत्त्व होता है। जहां राग होगा वहां क्रोध होना स्वाभाविक है। अप्रत्याख्यानी क्रोध आदि में तनाव की सत्ता मानसिक स्तर पर ही होती है। बाह्य प्रतिक्रियाएं कम होती हैं। व्यक्ति को क्रोध तो आता है, किन्तु वह उसकी बाह्य प्रतिक्रिया नहीं करता है, मात्र मानसिक 67 कषाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री, पृ. 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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