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________________ इतनी गहरी होती है कि उसकी दृष्टि सम्यक् होने में अनन्त भव लग जाते हैं । अनन्तानुबंधी कषायें सम्यक्दर्शन की विघातक होती हैं। 57 तनाव के मुख्य कारणों में से एक कारण सुखों की अतृप्त कामना ही है और यह अतृप्त कामना ही अनन्तानुबन्धी कषाय है। व्यक्ति अपनी कामना को प्राप्त करने में बाधक तत्त्वों पर क्रोध करता है। मनोज्ञ पदार्थों पर अधिकार प्राप्त होने पर गर्व अर्थात् मान करता है। अधिकार न मिलने पर अहं के लिए माया ( कपटवृत्ति) का आश्रय लेता है। अनेक पदार्थों या व्यक्तियों पर इष्टानिष्ट भाव रखते हुए सुख की प्राप्ति के लिए सदैव चिंतित रहता है और प्रिय वस्तु या व्यक्ति का संयोग नहीं मिलने पर अपना मानसिक संतुलन खो देता है । अप्रत्याख्यानी कषाय — अप्रत्याख्यानी का अर्थ होता है, जिसे व्यक्ति पूरी तरह से छोड़ नहीं पाते हैं, अर्थात् कहीं न कहीं से निमित्त मिलने पर वह भले ही प्रतिक्रिया नहीं करे, किन्तु अपने मनोभावों को रोक नहीं पाता है। इसे हम तनाव की वह स्थिति कह सकते हैं, जहां व्यक्ति बाह्यस्तर पर व्यक्त प्रतिक्रियाएं न कर संतुलन बनाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु मानसिक स्तर पर संतुलन या समभाव नहीं बना पाता है अर्थात् व्यक्ति पागल तो नहीं होता पर तनावयुक्त तो रहता है । 57 कषाय 128 इसे हम तनावों की अल्पता का द्वितीय स्तर भी कह सकते हैं। कषायों के स्तर की दृष्टि से अप्रत्याख्यानी कषाय अनन्तानुबन्धी कषाय से कुछ ऊपर उठना है। इसमें व्यक्ति बाह्य प्रतिक्रियाएं रोकता भी है । अप्रत्याख्यानी कषाय में व्यक्ति बाह्य प्रतिक्रियाएं तो नहीं करता है, किन्तु अन्तर्मन में राग-द्वेष के भावों की अग्नि जलती रहती है। कुछ तनाव ऐसे भी होते हैं, जो व्यक्ति की आदत बन जाते हैं और जो आदत बन जाते हैं उनको सहज निराकृत नहीं किया जा सकता। वह प्रतिक्रिया तो रोक लेता है पर आंतरिक मन में शांति का अनुभव नहीं कर सकता। मनोभावों के स्तर पर चिंतित, अशांत व तनावग्रस्त रहता है । Jain Education International हेमप्रभाश्री पृ. 40 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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