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9. नपुंसकवेद - स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा को
नपुंसकवेद कहते हैं।
उपर्युक्त तीनों वेदों के अभिलाषा रूपी भावों को क्रमशः करीषाग्नि, तृणाग्नि और नगरदाह के समान बताया गया है। इन तीनों वेदों का सम्बन्ध कामवासना से है। इन वासनाओं के उदय में इनकी पूर्ति न होने पर तनाव की उत्पत्ति होती है। यद्यपि ये वासनाएँ शरीरजन्य हैं, किन्तु इनका सम्बन्ध मनोवृत्तियों से भी है।
भगवतीसूत्र के इन चारों कषायों के इन पर्यायवाची नामों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से प्रत्येक कषाय का क्षेत्र अतिव्यापक है और ये विभिन्न रूपों में प्रकट होती हैं। इनके इन पर्यायवाची नामों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाने में प्रमुख रूप से कार्य करती हैं।
जहाँ तक कर्म साहित्य के ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें सोलह कषायों और नव नोकषायों को मोहकर्म का ही एक विभाग माना गया है। अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन -ये कषायों के चार भेद तनाव के स्तर को भी सूचित करते हैं। कषाय के प्रकार और स्तर के आधार पर कर्म साहित्य के ग्रंथों में कर्म बंध की तीव्रता और मंदता का विचार किया गया है। जैन कर्म सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि कषायों की अवस्था जितनी तीव्र या मन्द होगी, उसी के आधार पर कर्मबंध भी तीव्र या मंद होगा अथवा दीर्घकालिक या अल्पकालिक होगा। इस प्रकार कषायों के स्तर को तनावों के स्तर के समान मान सकते हैं। चाहे कर्मों के बंध या उदय का प्रश्न हो, उनमें मुख्य रूप से कषायों का स्तर ही काम करता है। अतः जैन कर्म सिद्धांत का संक्षेप में निष्कर्ष यही है कि यदि तनावों से मुक्ति पाना है तो व्यक्ति को कषायों से मुक्त होना होगा।
कर्मग्रंथ, भाग-1, गाथा -22
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