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करने वाली स्थिति को वहीं रोक देता है और शुद्ध स्वभाव में परिणमन करने लगता है। यह शुद्ध स्वभाव ही तनावमुक्ति की अवस्था है।
कर्मचेतना एवं तनाव - __जब विभिन्न प्रकार के पदार्थ इन्द्रियों के सम्पर्क में आते हैं, तो उनके निमित्त से अनेक प्रकार की अनुभूति या संवेदनाएं जन्म लेती हैं। इन संवेदनाओं
और अनुभूतियों को सजगता पूर्वक अनुभव करना या देखना ज्ञान चेतना है, किन्तु जब इन अनुभूतियों के प्रति अनुकूलता या प्रतिकूलता का भाव जागृत होता है तो उन्हें पाने या दूर करने की इच्छा का जन्म होता है। यह इच्छा या संकल्प ही कर्मचेतना कही जाती है। इसके अन्तर्गत ऐसा हो, ऐसा न हो, यह मिले, यह न मिले, इसका पुनः-पुनः संवेदन हो, इसका संवेदन कभी न हो, आदि चित्तवृत्तियाँ होती हैं। ये ही कर्मचेतना कहलाती हैं। वस्तुतः ज्ञान चेतना प्राणी के बंधन का कारण नहीं होती, किन्तु जब वह ज्ञान-चेतना, इच्छा या आकांक्षा का रूप ले लेती है तो वह कर्म चेतना बन जाती है। यह कर्म चेतना विकल्प रूप होने के कारण बंधन का हेतु होती है। जो बंधन का हेतु है, वही तनाव का भी हेतु है। इस प्रकार ज्ञान चेतना विशुद्ध आत्म चेतना है तो कर्मचेतना विकल्पित होने के कारण नए कर्म का बंध करती है। ज्ञान चेतना में मात्र इर्यापथिक आश्रव होता है, जबकि कर्म चेतना से साम्परायिक आश्रव होता है और यह साम्परायिक आश्रव ही कर्म बंध और तनावों का हेतु बनता है। कर्म चेतना तनाव को जन्म देती है। अतः यदि तनाव से मुक्त होना है तो हमें अपनी चेतना को ज्ञान चेतना तक ही सीमित रखना होगा। वह विशुद्ध अनुभूति मात्र रहे, उसके साथ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ आदि के संकल्प विकल्प न जुड़े, क्योंकि संकल्प विकल्प ही तनावों के मूलभूत कारण हैं। अतः तनावमुक्ति के साधक को अनुभूति को शुद्ध रूप में देखना चाहिए। उनके साथ अनुकूल-प्रतिकूल, सुखददुःखद, अच्छा-बुरा ऐसे विकल्प नहीं जोड़ना चाहिए। संकल्प-विकल्पों से मुक्त शुद्ध अनुभूतियों की चेतना तनावमुक्त चेतना है तो उन अनुभूतियों से उत्पन्न
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