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________________ 2. 3. 4. की ही अवस्था है, क्योंकि तृष्णा जीवित रहती है। यह अवस्था जैनदर्शन के विक्षिप्तचित्त के समान है। रूपावचर यह अवस्था यातायात मन के समान ही है। इसमें मन अस्थिर तो रहता है, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। बिना किसी संकल्प विकल्प के जब शांति का अनुभव होता है, तो उस क्षण को बनाए रखने का प्रयास भी होता है, किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण बाहरी विषयों में उलझ जाता है और तनावग्रस्त हो जाता है । अरूपावचर यह चित्त की स्थिर अवस्था है। इसमें चित्त पूर्णतः तनावमुक्त तो नहीं होता है, लेकिन तनावग्रस्त भी नहीं रहता है, क्योंकि उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनता होते हैं । 41 लोकोत्तर चित्त यह तनावमुक्ति की अवस्था है। निर्वाण अर्थात् तृष्णा का शांत हो जाना, यह पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। इस अवस्था में तनाव के मूल कारणों राग-द्वेष, वासना, मोह आदि पूर्ण रूप से क्षीण हो जाते हैं । राग-द्वेष तनाव की उत्पत्ति के बीज हैं और जब वह बीज ही समाप्त हो जाएगा तो तनाव रूपी पेड़ कभी नहीं पनपेगा । इस अवस्था में व्यक्ति का चित्त पूर्णतः तनावमुक्त हो जाता है। 93 ― योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ योगदर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं - 1. क्षिप्त 2. मूढ़, 3. विक्षिप्त, 4. एकाग्र और 5. निरूद्ध | 2 - Jain Education International - 1. क्षिप्त चित्त यह अवस्था भी विक्षिप्त मन व कामावचर चित्त के समान ही है । चित्त एक विषय से दूसरे विषय की ओर दौड़ता ही रहता है, विषयों में 41 " जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ.495 42 भारतीय दर्शन (दत्ता), पृ. 190 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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