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जैनदर्शन में मन की अवस्थाएँ - आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार . अवस्थाएँ मानी हैं - 1. विक्षिप्त मन, 2. यातायात मन, 3. श्लिष्ट मन और 4. सुलीन मन 1. विक्षिप्त मन - यह चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है।
अस्थिर होता है। अस्थिर मन तनावयुक्त होता है। 2. यातायात मन – इस अवस्था में मन की भाग-दौड़ बनी रहती है। मन
कभी बाह्य विषयों की ओर जाता है, तो कभी अन्तरात्मा में स्थित होता है। इस अवस्था में क्षण भर के लिए शांति का अनुभव होता है और फिर
मन तनावग्रस्त हो जाता है। 3. श्लिष्ट मन – यह मन की स्थिरता की अवस्था है। जैसे-जैसे स्थिरता
बढ़ती है, तनावमुक्ति के लिए अग्रसर होता जाता है। 4. सुलीन मन - यह पूर्ण तनावमुक्ति की अवस्था है, क्योंकि इसमें
संकल्प-विकल्प, मानसिक वृत्तियाँ, वासनाएँ आदि शांत हो जाती हैं। बौद्धदर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ – अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार बौद्ध दर्शन में भी चित्त की चार अवस्थाएँ हैं -
1. कामावचर, 2. रूपावचर, 3. अरूपावचर और 4. लोकोत्तर कामावचर – यह मन की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति कामनाओं और वासनाओं के पीछे भागता रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति के मन में संकल्प- विकल्प चलता ही रहता है। अपनी कामनाएं पूरी होने पर वह स्वयं को तनावमुक्त समझता है, किन्तु कुछ ही क्षण में कोई नई कामना जग जाती है, जो उसे तनावग्रस्त बना देती है। कामना पूरी होने पर भी जो उसे क्षणिक तनावमुक्ति का अनुभव होता है, वस्तुतः वह तनावग्रस्तता
39 योगशास्त्र - 12/2 40 अभिधम्मत्थसंगहो, पृ. 1
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