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भटकता रहता है। ऐसे में तनावमुक्ति कहाँ ? व्यक्ति पूर्णतः तनावग्रस्त बना रहता है । यह विषयासक्ति की अवस्था है ।
2. मूढ़ चित् इस अवस्था में प्रमाद अधिक होता है। आलस्य के कारण वह कोई कार्य नहीं कर पाता और जो करता है, उसमें भी विफल हो जाता है । यह अवस्था भी तनावमुक्त अवस्था नहीं है, क्योंकि इसमें वासनाएँ शांत नहीं होती । निद्रावस्था में चित्त की वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है, किन्तु वे तनावमुक्त नहीं होती है।
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3. विक्षिप्त चित्त बौद्धदर्शन का विक्षिप्त चित्त जैनदर्शन के विक्षिप्त चित्त से थोड़ा भिन्न है। इस चित्त में व्यक्ति एक विषय की ओर दौड़ता है, फिर दूसरा मिलते ही उसके पीछे भागने लगता है, तो पहला वाला छूट जाता है। वस्तुतः यह भाग-दौड़ तनाव को उत्पन्न करती है। व्यक्ति में संतुष्टि नहीं होती है, एक के बाद एक विषय की चाह होती ही रहती है।
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4. एकाग्र चित्त यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें चित्त एक विषय पर एकाग्र हो जाता है। वस्तुतः चित्त की एकाग्रता से ही तनावमुक्ति होती है, किन्तु इस अवस्था में चित्त एकाग्र होते हुए भी तनावग्रस्त तो रहता ही है, क्योंकि उसकी एकाग्रता किसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है और एक विषय की आसक्ति भी तनाव का ही कारण है ।
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5. निरूद्ध चित्त यह पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त इन्द्रियों के विषयों का भोग नहीं करता । यह मन की स्थिर और शांत अवस्था है। चित्त की सभी वृत्तियों का लोप होने से यह तनावमुक्त अवस्था है, जिसे जैनधर्म के शब्दों में मोक्ष कह सकते हैं ।
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उपर्युक्त विवेचन से हम यह कह सकते हैं कि भले ही नामों में अन्तर है, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई अन्तर नहीं है। योगदर्शन में चाहे पाँच चित्त की अवस्थाएँ हैं, पर प्रथम दो क्षिप्त एवं मूढ़ जैन दर्शन के विक्षिप्त मन
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