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________________ सन्त तो अरिहंत का प्रथम रूप है । भले ही हम सन्त न हो. सकें। पर शान्त तो हो ही सकते हैं । साधु-मुनि का बाना न पहन सकें, पर हृदय को तो साधु बनाया जा सकता है । मैं तो चाहता हूँ हर संसारी अपने-आप में साधु हो, हृदय से साधु ! साधुता और सज्जनता की रोशनी उसके आचार-व्यवहार में झलके । हर कोई पूरी तरह निर्व्यसन हो, माधुर्य और आनन्द से सराबोर ! गृहस्थ- संत होना ही मानवमात्र का उद्देश्य हो । दीक्षा वास्तव में जीवन का उज्ज्वल रूपांतरण है। हममें जो गलत आदतें पड़ गई हैं, कुसंस्कार आ चुके हैं, उन्हें छोड़कर सभ्य, संस्कारशील और पवित्र जीवन जीना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य एवं पुरुषार्थ होना चाहिये । व्यवसाय का कर्मयोग होना चाहिये, विवाह का गृहस्थाश्रम निभाया जाना चाहिये, सुख-सुविधाएं जीवन-यापन के लिये स्वीकार्य हैं, परन्तु हमें ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिये, जो हमारे दामन में दाग लगाए । जीवन निरन्तर संघर्ष से भरा हुआ है। यदि हम अपने बोध, विवेक और ईमान को दरकिनार कर बैठेंगे, तो जीवन को जीना हमारे लिए इतना दुश्वार हो जाएगा कि हम जीने के नाम पर या तो लाश को कंधे पर ढोते फिरेंगे, या फिर जीवन को नरक बना डालेंगे। तब आत्म-हत्या, हमें जीवन - मुक्ति का एकमात्र उपाय नजर आएगा । मेरे समझे, हमारे समक्ष दो मूल्य हैं - पहला है गति और दूसरा है स्थिति । हमें चालीस - पैंतालीस तक गति - प्रगति पर ध्यान देना चाहिये, जबकि शेष जीवन को स्थिति पर केन्द्रित करना चाहिये। गति विकास और विस्तार के लिए है, स्थिति आत्म - लीनता और परमात्म - स्मृति के लिए है। सिर पर आया Jain आत्म-शुद्धि के चरण / ५२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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