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________________ आत्म-शुद्धि के चरण मनुष्य की समस्त उज्ज्वल संभावनाएं जीवन से जुड़ी हैं। जिसका जीवन के प्रति सम्मान और अहोभाव है, वह हर पल, हर घड़ी अपने-आप में परमात्म-भाव को जीता है, परमात्मा के प्रसाद का अमृतपान करता है। जीवन का सम्मान और छोटे-बड़े हर प्राणी में प्रभु की मूरत स्वीकार करना, जहां प्रेम और अहिंसा का स्वस्थ आचरण है, वहीं जीवन और जगत् को माधुर्य और आनन्द से सराबोर कर लेना है। मनुष्य की आत्म-निर्मलता के लिए वेश अथवा स्थान का परिवर्तन उतना महत्व नहीं रखता, जितना कि मन का परिवर्तन महत्व रखता है। कोरे कपड़ों को रंग लेने से क्या होगा अगर अन्तरमन अछूता रह जाये। हम जीवन को संसार और संन्यास में न बांटें। हर संसारी संन्यासी नहीं हो सकता। Jain Education International For Personal & Private use अन्तर-गुहा में प्रवेश/५१५.org
SR No.003968
Book TitleAntargruha me Pravesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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