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भगवत्ता फैली सब ओर
को नहीं देखा। उसने केवल सागर की लहरें देखी हैं । लहरों को देखना तो केवल जीवन के संघर्ष को देखना है। युद्ध और वैमनस्य को देखना है। लहरें सागर नहीं हैं। वे तो केवल ऊपरी सतह हैं। ऊपर-ऊपर से देखना तो केवल मन का पागलपन है, नादानी है।
सागर को देखकर आपको यह संतोष तो हो जाएगा कि सागर देख लिया, मगर जब तक हमने सागर के खारे पानी को नहीं चखा, हम उसकी गहराई में नहीं गए, तो मोती भी नहीं पा सकेंगे। सागर में तो ठीक वैसे ही घुल जाना पड़ता है जैसे पानी में नमक घुल जाता है। इसीलिए तो कहा गया'विसर्जन ही है सर्जनहार', इसमें जितना अधिक डूबोगे, उतना अधिक तुम्हारा स्वयं का निर्माण होगा।
जीवन के निर्माण के लिए आखिर हमें अपने जीवन का भी तो बलिदान करना पड़ेगा। केवल यह सोचते रह जाओगे कि हमने 'इतनी' किताबें पढ़ लीं, इसलिए हमें 'सब कुछ' मिल जाएगा तो तुम गलती पर हो । किताबों से केवल जानकारी मिल सकती है, सूचना-इनफोरमेशन मिल सकती है, ज्ञान नहीं मिल सकता। 'ज्ञान' तो वह है जिसका स्वाद व्यक्ति ने स्वयं के अनुभव से चखा है। स्वाद के बारे में पढ़ लेना और बात है, जबकि स्वाद को चख लेना और बात है। केवल जानकारी से कुछ नहीं होता, उसका अनुभव भी तो होना चाहिए। स्वाद चखना ही तो जीवन की जीवंतता है। स्वाद नहीं चख रहे हो तो जीवन केवल बिता रहे हो, उसका अनुभव नहीं पा रहे हो।
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