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जिएं जीवन-का-दर्शन
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व्यक्ति को
परिवार को छोड़ना सरल है लेकिन सम्प्रदाय के राग को छोड़ना कठिन है । व्यक्ति के लिए संसार का राग और सम्प्रदाय का राग समान रूप से बन्धनकारी है धार्मिक बनना है, साम्प्रदायिक नहीं होना है। जहां धर्म की बजाय सम्प्रदाय को फैलाने की बातें होती हैं, वहां झूठ और फरेब हैं । हिन्दुस्तान की तो बदकिस्मती यही रही है कि यहाँ धर्म तो समाप्त होता चला जा रहा है और सम्प्रदाय फलते-फूलते जा रहे हैं । आज दुनिया में सम्प्रदाय - ही सम्प्रदाय नजर आते हैं ।
आदमी सारी डुबकियां सम्प्रदाय में ही लगा रहा है । वास्तविक स्नान से वह अभी अछूता है। आदमी अनुभव कर रहा है, मगर उन्हें बटोर नहीं रहा है । हर आदमी अपने-अपने बैल को बाड़े में बांधना चाहता है और उसी में लगा है। हर गुरु का भी यही उद्देश्य होता है कि मेरे पास अधिकाधिक शिष्य हों । शिष्य बनने वाला तो धोखा खा ही रहा है, गुरु भी अपने आपको धोखा दे रहा है । वास्तविक गुरु का उद्देश्य किसी को अपना शिष्य नहीं, अपितु गुरु ही बनाना होता है । शिष्य को शिष्य बनाकर क्या बड़ा काम किया । तुम्हारे पास आने वाले को तुम वही बना दो, जो तुम खुद हो । उसे अपने पर आधारित मत रखो। तुम उसे केवल चलना सिखा दो । आगे बढ़ने का काम उस पर छोड़ दो। वह अपनी किस्मत के सहारे खुद आगे बढ़ लेगा ।
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अनुभव का शास्त्र ही ऐसा है । यह अनुभूति का जगत है, भीतर के प्रयोगों का जगत है । अध्यात्म तो यही कहेगा कि तू पूर्ण है तो दूसरों को भी पूर्ण बना । यदि तू
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