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________________ क्षमा के स्वर नैतिक साधना का अमृत : क्षमा सकल धर्म-दर्शन का प्रस्थान बिन्दु समभाव है। समभाव ही साधना का सार तत्त्व है। क्षमा में समभाव का निवास है। क्षमा ही समभाव की अभिव्यक्ति है । समभाव तथा क्षमा में गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। इनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करना ही जीवन या साधना का सार है। सत्यतः हमारे आचार-विचार का केन्द्रबिन्दु समभाव तथा क्षमा की उपलब्धि है। इसके समक्ष समस्त ऐश्वर्य व्यर्थ हैं। चाहे गार्हस्थ्यमूलक स्थिति हो या श्रामण्यमूलक स्थिति, अन्तरात्मा में लगातार क्षमा एवं समता की अभिवद्धि ही श्रेयस्कर मान्य है। गृहस्थ यदि इन दोनों से च्युत है, तो वह अपने जीवन के अमृतत्व से च्युत है। साधक यदि इनसे वञ्चित है, तो वह अपनी साधना के फल से वञ्चित है । इनके अभाव में उसकी साधना बाधित हो जाएगी। ___ वस्तुतः चैतसिक जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति यही है कि वह बाहरी एवं आन्तरिक उद्वेगों, उत्तेजनाओं तथा संवेदनाओं से उत्पन्न तनाव का अन्त कर समभाव या समता की स्थापना करे। समता की स्थापना से चेतना की ऊर्जाओं का केन्द्रीयकरण होता है ; फलस्वरूप चित्त-शान्ति की प्राप्ति होती है। क्षमाशील व्यवहार का लक्ष्य पूर्ण शान्ति की प्राप्ति है। समता से वीतरागता की प्राप्ति होती है। वीतरागता से मनुष्य परम पद को प्राप्त करता है। इस प्रकार वीतरागता की साधना का मल क्षमा है। यही मोक्षमार्ग की आधारशिला है। इसी के आलोक में मनुष्य अपनी निर्वाण-यात्रा पूर्ण करता है। शास्त्र में एक प्रसंग है, जो कि इस प्रकार है गुरु ने शिष्य से कहा, "हमें स्वयं को उपशमभाव रखना चाहिये और दूसरों को भी उपशान्त रखना चाहिये। जो उपशान्त या क्षमावन्त है, उसकी ही आराधना ( साधना ) सफल है, जो उपशान्त या क्षमावन्त नहीं है, उसकी आराधना व्यर्थ हो जाती है।" शिष्य ने पूछा, "भन्ते ! ऐसा किसलिए ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003966
Book TitleKshama ke Swar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJain Shwetambar Shree Sangh Colkatta
Publication Year1984
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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