SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४२ ] स्वभाव है तो विष उसका विभाव है, जो बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है । क्षमा अमृत है, और क्रोध विष । जहाँ एक विकासक है, वहाँ दूसरा विपातक है, विनाशक है । ___ क्रोध आत्मघातक विकार है । क्रोध रूपी सर्प घृणा और विद्वेष रूपी विष से युक्त है। ऐसे विष का पान शिव जैसे देवता ही कर सकते हैं। जनसाधारण सामान्य सर्प को ही विषैला समझता है । किन्तु क्रोधी सर्प सामान्य सर्प से भी ज्यादा विषैला और खतरनाक होता है। सर्प विषैला होता है, परन्तु वह उसके लिए हानिकारक नहीं होता। वह तो जिसे काटता है, उसी के लिए घातक होता है। जबकि क्रोध रूप विष का प्रभाव स्वयं पर एवं दूसरे पर भी पड़ता है । अतः क्रोध से बढ़कर विष और कौन हो सकता है ? कहा भी है क्रोधस्य कालकूटस्य, विद्यते महदन्तरम् । स्वाश्रयं दहति क्रोधः, कालकूटो न चाश्रयम् ।। अतः क्रोध का विष अत्यधिक क्षति कर होता है। उसकी मार बहुत दूर तक होती है । इसलिए क्रोध के उत्पन्न होते ही उसे समाप्त कर देना चाहिये। नहीं तो इसका परिणाम भयंकर आता है। जैनधर्म में क्रोध को निन्दा : - जैन-आचार दर्शन में क्रोध को आध्यात्मिक एवं नैतिक दोनों दृष्टि से अनुचित माना गया है। जैन शास्त्रों में इसे कषाय और आभ्यन्तर परिग्रह कहा है । क्रोध की आलोचना करते हुए शेय्यम्भव सूरि ने लिखा हैं कि क्रोध प्रीति का विनाशक हैं। गौतमकुलककार ने क्रोध को अपकीर्ति और अस्थिर बुद्धि का मुख्य कारण बताया है। क्रोध एक विष है--यह उनका अटल विश्वास है । उनकी मान्यता है कि क्रोध से पराजित व्यक्ति सुख नहीं पाते । देह रूपी घर में क्रोध के रहने से तीन विकार होते हैं-क्रोध स्वयं तपता हैं और दूसरों को पीड़ित करता हैं तथा धन का नुकशान करता हैं। क्रोध विनय-विनाशक, पीड़ा-दायक, मित्रता का भेदक, उद्वग का उत्पादक, कीति-नाशक, दुर्गति-दायक और पुण्य को मार भगाने वाला है । अतः .१. उद्धृत्, संस्कृत श्लोक संग्रह, ५३.१ २. स्थानांग सूत्र, ४.४.. ३. भगवती आराधना; १११८. ४. दशवैकालिक, ८.३८ ५. श्री गौतम कुलकम्, ३,४, ५ ६ . श्री कामघट कयानकम्, ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003966
Book TitleKshama ke Swar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJain Shwetambar Shree Sangh Colkatta
Publication Year1984
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy