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[ ३९ ] गीता में लिखा है-क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है। अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है । भ्रमित स्मृति से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश हो जाने से पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है । ___इस प्रकार हम पाते हैं कि क्रोध से विवेक विकृत हो जाता है। फलतः आत्मा की शान्ति भंग हो जाती हैं । व्यक्ति अपने ऊपर काबू खो देता है। विचार की स्पष्टता नष्ट हो जाती है। परिस्थिति की पकड़ से वह रहित हो जाता है । आशय यही है कि क्रोध से हुई विवेकशून्यता अनेक दुर्गुणों की जननी है । क्रोध स्वास्थ्य के लिए हानिकर : ___ मन और शरीर में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। स्वस्थ-शरीर में स्वस्थमन रहता है । स्वस्थ-मन ही सम्यक् रूपेण विवेकयुक्त होता है। शारीरिक अस्वस्थता स्वस्थ-मन के लिए घातक है। दैहिक रोग शरीर की स्वस्थता में हानिकर है। मानसिक रोग मन की स्वस्थता में हानिकर है। मानसिक रोग अनेक हैं। क्रोध भी एक मानसिक रोग है। यह रोग बड़ा भयंकर होता है। शरीर और मन दोनों की स्वस्थता को यह ग्रस लेता है ।
तुलसीदास ने क्रोध को पित्त कहा है। जो सदा छाती जलाता रहता है। उन्होंने कहा है, 'क्रोध पित्त निज छाती जारा। आज मनोवैज्ञानिकों ने भी क्रोध को मूक रोग माना हैं। उनकी मान्यता है कि क्रोध का दुष्प्रभाव मन और शरीर पर पड़ता है। क्रोध हमारी स्नायविक शक्ति को नष्ट करता है। इससे स्नायविक तनाव बढ़ता है। यह तनाव मानसिक और शारीरिक दृष्टि से घातक होता है । शरीर की ग्रन्थियों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे वे ग्रन्थियाँ, जो शरीर की रक्षा और और वृद्धि के लिए उपयोगी होती हैं या अनुपयोगी तत्त्वों को शरीर से बाहर निकालती हैं, असन्तुलित एवं अनियन्त्रित हो जाती हैं। परिणामतः नाड़ियों में रक्त-प्रवाह तीव्र हो जाता हैं । इससे मस्तिष्क की शिराओं तथा धमनियों के फट जाने का भी भय रहता है। उच्च रक्तचाप (ब्लड-प्रेसर) का प्रकोप होने की सम्भावना रहती हैं। इससे हृदयातिपात (हार्ट फेल्योर) जैसी खतरनाक बीमारियाँ भी हो सकती हैं । १. गीता, २-६३. २. रामवरित मानस, उत्तरकांड, दोहा १२१
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