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. [ ३५ ] अर्थात् क्रोध के कारण भौंए वक्र हो जाने से मुख भी वक्र हो जाता है। आकृति भयावह हो जाती है। नेत्र लाल हो जाते हैं। व्यक्ति अपने दांतों से ओष्ठ चबाने लगता है। वह क्रोध से. पीड़ित होकर लोक में निन्दा का पात्र बनता है। उसका सारा शरीर कम्पायमान होने लगता है। ऐसा लगता है, मानो पृथ्वी पर राक्षस उतर आया। पुनश्च
क्रोध में आंखे होती लाल, क्रोध में मुंह होता विकराल । क्रोध में खूब बजाता गाल, क्रोध में सभी बिगड़ती चाल ।। क्रोध में नोच डालता बाल, क्रोध कर देता है बेहाल । क्रोध से जल्दो आता काल, क्रोध देता नरकों में डाल । क्रोध में जलते सारे अंग, क्रोध में सत्य न रहता संग । क्रोध में हो जाती मति भंग, क्रोध में मिटती सभी उमंग ॥ क्रोध से कांप उठती सब देह, क्रोध में मिट जाता सब नेह । क्रोध से मिटता सद्व्यवहार, क्रोध में स्वयं मारता मार ॥ क्रोध में खोता सारी लाज, क्रोध में कुए गिरता भाज । क्रोध में गले बांधता फांस, क्रोध में करता आत्मविनाश । क्रोध में गुरुजन को ललकार, क्रोध में देता है दुत्कार । क्रोध में उन्हें मारता मार, क्रोध में बिसराता सब प्यार ॥1 इस तरह हम देखते हैं कि क्रोध से मनुष्य में अनेक विकृत लक्षण प्रगट होते हैं। क्रोध-अग्नि-स्व-पर दाहक : ____क्रोध विलक्षण अग्नि है। अन्य अग्नियाँ इससे भिन्न हैं। वे उसी को जलाती हैं, जो उसके समीप जाता है । जब कि क्रोध रूपी अग्नि स्वयं क्रोधी को और क्रोध के विषय दोनों को ही जलाती है। मनुष्य दूसरे पर क्रोध करता है। वह दूसरों को जलाने के लिए आग जलाता है। किन्तु स्वयं उससे अछूता नहीं रहता है । दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला पहले स्वयं गिरता है। क्रोध में व्यक्ति भूल जाता है कि वह जिसकी झोपड़ी में आग लगा रहा है, उसी से सटी हुई मेरी झोपड़ी भी है। चीनी कहावत है कि The fire you kyndle for your enemy often burns yourself more than him. अर्थात् जिस अग्नि को तुम शत्र के लिए जलाते हो, वह बहुधा तुम्हें ही अधिक जलाती है। इसीलिए डॉ० हरिवंश राय १. उद्धृत-आनन्द प्रवचन, भाग ६, पृष्ठ ३११.
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