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[ २६ ] अपने उपाश्रय में समय पर न लौट सकी। तीर्थंकर के दर्शनार्थ आए सूर्य और चन्द्र की साक्षात् उपस्थिति से वह दिन और रात्रि का भेद न पा सकी। देरी से पहुँचने पर प्रधान साध्वी चन्दना के द्वारा उसे उपालम्भ दिया गया। मृगावती ने चन्दना के उपालम्भों का कोई प्रतिकार नहीं किया; चुपचाप सुन लिया। मृगावती ने इतना अधिक पश्चाताप किया कि उसका कन-मल नष्ट हो गया और उसे उसी रात्रि में केवल ज्ञान प्राप्त हो गया।
(६) एकदा यादव राजकुमारों ने द्वैपायन ऋषि को सताया । क्रद्ध हो उन्होंने द्वारिका शहर को जला डालने का निश्चय किया। मृत्यु के बाद, उन्होंने अग्निकुमार देव के रूप में जन्म लिया और सारे शहर को जलाकर राख कर दिया।
(७) राजकुमार नागदत्त ने कम उम्र में ही संसार को त्याग दिया और संन्यास ग्रहण कर लिया। नागदत्त अपने पूर्व जन्म में एक नाग था। अतः रसना पर तो उसका नियन्त्रण था परन्तु भूख पर नहीं। उसे बहुधा भूख लगती थी और वह दिन भर खाया करता था। वह इतना सहनशील था कि उसने उन लोगों के प्रति भी कभी क्रोध का कोई चिह्न प्रगट न किया, जो उनके भोजन पर थकते थे। एक दिन पर्व का दिवस था। नागदत्त के अन्य साथी-सन्तों के उपवास था। नागदत्त इस महान पर्व-दिन में भी भिक्षा लाये, तो अन्य तपस्वी सन्तों ने क्रोधावेश में उनके भिक्षा-पात्र में थूक दिया । नागदत्त ने उनसे क्षमा-याचना की कि मेरा अपराध क्षमा करें जो मैं आपके थूकने के लिए थूकदान | पात्र न ला सका । नागदत्त ने अपनी सहनशीलता के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की थी। (यह दृष्टान्त 'कूरगडूक केवली' के नाम से भी प्रसिद्ध है। ) इस दृष्टान्त से स्पष्ट है कि क्षमा की उत्तम आराधना ही सर्वश्रेष्ठ तप है। क्षमा का शत्र-क्रोध :
क्षमा, आत्मा का स्वाभाविक गण है, जबकि क्रोध, आत्मा का वैभाविक गुण है । क्रोध आत्मघातक विकार है । क्रोध की वृत्ति आत्मा १. द्रष्टव्य-(क) व्यवहारसूत्रवृत्ति (मलयगिरि कृत), भाग ३, पृ० ३४.
(ख) आवश्यक चूणि, भाग १, पृष्ठ ६१५. २. द्रष्टव्य-अन्तकद्दशांग, अनुच्छेद २, ३. द्रष्टव्य--(क) दशाश्रु तस्कन्ध चूर्णि, पृष्ठ ४१-२
(ख) आवश्यक नियुक्ति, १२८० वां पद्य
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