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[ ७ ] और बन्दी बना। किन्तु पृथ्वीराज ने सत्रहों बार उसके अपराधों को क्षमा कर दिया और हर बार उसे मुक्त कर दिया। पृथ्वीराज क्षमावीर था। शास्त्र कहता है 'क्षमाशस्त्रं करे यस्य, दुर्जनः कि करिष्यति' अर्थात् जिसके पास क्षमा-शस्त्र है, उसका दुर्जन क्या कर सकता है। यद्यपि पृथ्वीराज की यह क्षमा क्षात्र-धर्म की दृष्टि से उचित हो, किन्तु वह क्षमा का अतिरेक ही था। गहस्थ के लिए क्षमा की एक सीमा है। उसके लिए काटना मना है; फफकारना आवश्यक है। अन्यथा उसका, उसके समाज और देश का अस्तित्व ही खतरे में होगा। ___ मुनि की क्षमाशीलता भिन्न है। वह संग्राम आदि के वातावरण से सुदर है। वह न केवल बाहर से अपितु अन्दर से भी क्षमा का पुजारी होता है। महात्मा कबीर का निम्न कथन इसी की पुष्टि करता है
खोद खाद धरती सहै, काल कूट बनराय ।
कुटिल वचन साधु सहै, और से सहा न जाय ॥1 साधक दूसरों द्वारा पहुँचाए हुए परीषहों से विचलित नहीं होता । वह तो उन्हें शान्तिपूर्वक सहन करता है। यदि वह परीषहों से उद्विग्न हो जाता है, तो उसकी साधना ही धूमिल हो जाएगी। अतः परीषह तो उसकी साधना की कसौटी है। उदाहरण के लिए हम बीज को लेते हैं । बीज तभी अंकुरित होता है, जब उसे पानी के साथ धप भी मिलती है। दोनों की उपलब्धि से ही बीज वक्ष का रूप ले सकता है। इसी प्रकार साधना में अनुकल स्थिति के साथ प्रतिकूल स्थिति भी उत्पन्न होती है। दोनों प्रकार की स्थिति पर विजय प्राप्त करने से ही साधक साध्य की सिद्धि कर सकता है।
परीषह के आने पर ही साधक के क्रुद्ध होने की शक्यता रहती है। 'खन्तीए णं परीसहे जिणइ' अर्थात् क्षमा से परीषहों पर विजय प्राप्त की जाती है। परीषह बाईस प्रकार के होते हैं। साधक इन परीषहों से स्पृष्ट--आक्रान्त होने पर विचलित नहीं होता। वे इस प्रकार हैं
१. क्षुधा-परीषह, २. पिपासा-परीषह, ३. शीत-परीषह, ४. उष्णपरीषह, ५. दंश-मशक-परीषह, ६. अचेल-परीषह, ७. अरति-परीषह, १. कबीर वाङमय, खण्ड ३, पृष्ठ ३५५. २. उत्तराध्ययन सूत्र, २६ । ४६.
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