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हैं। बटोरता-टुकुरता आदमी मर जाता है, उस बटोरे हुए की रक्षा के लिए वे ही लोग चहे, नेवले, सांप के रूप में पुनर्जन्म ले कर जमीन में गड़ाए धन पर अपनी पूंछ के बल बैठे रहते हैं -
धन धरती में गाड़े बौरे, धूरि आप मुख लावै। मूषक सांप होवेगा आखिर, तातै अलच्छि कहावै। .
हम सिद्धांत और व्यवहार के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करें। हमारा जीवन एक अलग ढर्रे पर चल रहा हो और हम कोरे सिद्धान्तों की दुहाई देते फिरें, तो ऐसे सिद्धान्तों का क्या औचित्य? शास्त्र कहेंगे रात को मत खाओ, जबकि शास्त्रों के नब्बे फीसदी अनुयायी रात को ही खा रहे हैं। नारी उद्धार की बातें करेंगे, पर अपने घर की बहू को बूंघट की चारदीवारी से बाहर आने पर सख्त पाबंदी लगाएंगे। समारोहों में बड़े-बड़े नेताओं और विद्वानों द्वारा छुआछूत और ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाने हेतु भाषण दिलवाएंगे, पर हकीकत में ओसवाल-अग्रवाल, दस्सा-बीसा, सवर्ण-हरिजन की खाइयों को और गहराने का प्रयास करेंगे। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के प्रयासों से यज्ञ में होने वाली हिंसा पर तो रोकथाम हुई, पर परिग्रह-बुद्धि के चलते शोषण की हिंसा तो जारी ही है। अपरिग्रह के सिद्धांत से प्रेरणा लेकर लोगों ने धन और सुखों का कौनसा संविभाग किया? अपरिग्रह के नाम पर अपरिग्रह का मात्र कर्म-कांड ही चल रहा है। लोग अहिंसा और अपरिग्रह के नाम पर नंगे पांव घूम रहे हैं, मुंह पर कपड़ा बांध रहे हैं पर पैसों का परिग्रह, एक-दूसरे को अपने से पीछे धकेलने के प्रयास और विचारों में निरन्तर आयी गिरावट हमारे अपरिग्रह और अहिंसा के सिद्धांतों के आचरण पर प्रश्न-चिह्न लगा रहे
हैं।
लगता है, जैसे सेवा और प्रेम को, दया और करुणा को, ध्यान और योग को, शाकाहार और पर्यावरण को हम विदेशों को निर्यात कर रहे हैं, जो कभी हमारे ही देश के मूलभूत उत्पादन रहे हैं। लेकिन बदले में विदेशों से हमने आयात क्या किया? अंडे और मछलियां, शराब और
मानव हो महावीर / ३७
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