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शृंगार, हिंसा और आतंक ......! बेहतर होगा हम अपने जीवन में आये स्खलनों की शल्य-चिकित्सा करें। भीतर का मवाद बरकरार रहा, चीरा लगाने से परहेज रखते गये तो जीवन स्वयं विभूति बनने की बजाय नरक की तरह दुःखदायी और भारभूत ही रहेगा।
तीसरी बात, हम महज बाहर ही जीते हैं। हमारा स्नान, उपार्जन, चिकित्सा, सब बाह्य जीवन से जड़े हैं। हमने जीवन के दो रूप कर डाले- बाहरी और भीतरी। एक घरवाली और एक बाहर वाली। पैसिल गुम होने पर मां ने पूछा - क्या ढूंढ रहे हो। बेटे ने कहा, घरवाली!
हमने मनस् चिकित्सा पर ध्यान नहीं दिया, जिग्मे जीवन की मूल समस्याएं हल हों। मन में हो कचरा, तो रामायण का किया गया पारायण मात्र गोबर की भीत पर वेलवेट चढ़ाने के बराबर कहलाएगा। हृदय की स्वच्छता पर ध्यान नहीं है। शिक्षा-दीक्षा का पहला पाठ भीतर की पवित्रता का होना चाहिये।
मनुष्य की जीवन-शिक्षा की शुरुआत स्वयं मनुष्य से हो, मनुष्य के जीवन से हो, जीवन को सृजनात्मक, रचनात्मक बनाने पर केन्द्रित हो। मैं परमात्मा को जीता हूँ। परमात्मा मुझमें जीता है। धरती पर जीता मनुष्य परमात्मा का खड़ा मंदिर है। प्राणी-जीवन परमात्मा का निवास-स्थान है। मैंने इंसान ही क्यों, फूलों और पहाड़ों में भी उसके ऐश्वर्य का आकाश भर आनन्द उठाया है। मुझे सबसे प्रेम है। सर्वत्र परमात्म-दर्शन है, बालक में भी। मेरा अहोभाव जीवन के प्रति है। जीवन है तो सब है, जीवन नहीं तो कोई अर्थ नहीं। फिर तो सिर्फ अर्थी है, जनाजा है।
हर व्यक्ति को ईश्वर में आस्था रखनी चाहिए। ईश्वर आकाश में नहीं, जीवन में है, हर प्राणी में है। मनुष्य के लिए हर प्राणी का मूल्य है, पर मनुष्य, धरती का सर्वोपरि मूल्य है। मनुष्य के मंदिर खंडहर नहीं होने चाहिये। नर रहेगा, तो नारायण रहेगा। इन्सान मिटता गया, गिरता गया, तो मनुष्य की नृशंसता के कारण धरती को चौपट होने से कोई रोक नहीं सकता।
धरती पर तनाव और संत्रास न हो, इसके लिए पहला सूत्र है जीवन का सम्मान, जीवन के प्रति अहोभाव। जीवन को स्वर्ग बनाएं। यो ‘स्वर्गवासी' होना तो 'मृत्यु के कारण' मनुष्य की मजबूरी है। स्वर्ग
सम्मान करें जीवन का / ३८
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