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धर्माचरण का एक प्रचलित रूप है - व्रत-उपवास। बड़ा अच्छा शब्द है यह! धर्म का अद्भुत अवदान। पर तुमने कभी किसी को व्रत करते देखा है? एकादशी को द्वादशी की दादी बना देंगे। उपवास आहार की आसक्ति मिटाने के लिए है, पर चाटन ने उपवास का हुलिया ही बदल डाला है। उपवास तो बाद में होगा, उससे पहले पारणा, उत्तर पारणा। यानी डटकर खाएंगे, बदाम-पिस्ता पीस-पीसकर, क्योकि कल तो उपवास है। फिर उपवास हो गया, तो पारणा! दूध और उसमें कटे बदाम, ऊपर से घी, क्योंकि कल उपवास था।
चाटन, भाषण के बाद उद्घाटन! पहले तो ये लत नेताओं में ही थी, अब तो जिसे देखो वही उद्घाटन के लिए मोहताज है। उद्घाटन करके नाम कमाने की प्रतिष्ठा ने मानव-समाज की दुर्दशा कर डाली है। कल ही एक समाचार पढ़ा कि अमुक नगर के 'सी' वार्ड में बने सार्वजनिक शौचालय का कल उद्घाटन है, उद्घाटन पर अमुक सांसद आ रहे हैं। भवनों का उदघाटन तो फीता काटकर किया जाता है, पर शौचालयों का.....! देश की राजधानी में तो आपको यह मुखड़े-मुखड़े पर सुनने को मिल जाएगा- तुम जिस हस्ती को बुलाना चाहते हो, वह तो पान की दुकान का उद्घाटन करना हो, तो भी पहुंच जाएगा।
आखिर इन तौर-तरीकों से नैतिकता के कौन से मूल्य स्थापित या पुनर्स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। हमारी वाणी और व्यवहार में आई दूरी को मापने के कौन-से फीते हैं? विदेशों में हमारी इजत इतनी सी है कि किसी दुकान पर जाओ, तो दुकानदार चौकन्ना हो उठेगा। वह नौकर को इशारा करेगा- 'ध्यान से, इंडियन है' और देश में, कोई विदेशी आ गया तो पर्यटक-मेहमान का भाव किसमें है, जिसे देखो वह गोरी चमड़ी और पैसे पर टूट रहा है। हमें पैसा चाहिये, फिर वह चाहे जिस तरीके से आये।
माना कि विदेशी ऐश-ओ-आराम, मौज-मस्ती में पैसा खर्च करता है, मगर वह कम से कम उपयोग तो करता है। हम न उपयोग करते हैं, न दुरुपयोग। हम सिर्फ जमा करते हैं। यह संग्रह और परिग्रह है। उपयोग करना परिग्रह नहीं है, इकट्ठा करना परिग्रह है। अगर प्राचीन ग्रन्थ कहते हैं कि परिग्रह पाप है, तो .....! विश्व के ग्लोब पर खड़े होकर अपरिग्रह की तूती बजाने वाले, परिग्रह के भार से दबे जा रहे
सम्मान करें जीवन का / ३६
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