________________
रह गया है। मशाल की आग बुझ गई, अब सिर्फ डंडे और हथकंडे रह गये हैं। धर्म-विस्तार के नाम पर अगर कुछ हो रहा है तो सिर्फ नारेबाजी हो रही है, पोस्टर-पिलर लग रहे हैं, बैंड-बेनर का हो-हल्ला हो रहा है। आत्म-जागरण और जीवन-रूपांतरण की चेतना न जाने किस कथरी को ओढ़े कोने में दुबकी बैठी है।
धर्म-चेतना पर जोर दिया जाना चाहिये। धर्म के विस्तार में नहीं वरन् धर्म की गहराई में दिलचस्पी होनी चाहिये। धर्म का सार निष्काम-सेवा है। अध्यात्म की सार्थकता निस्पृह-भावना में है। 'परोपकारः पुण्याय, पापाय पर-पीडनम्' परोपकार को, समाज-सेवा को पुण्य मानो और पर-पीड़ा, पर-अहित को पाप समझो। यह होगा तभी, जब हमारी दृष्टि में जीवन का मूल्यांकन होगा। मूल्य-स्वीकृति के अभाव में स्व-पर का, कथनी-करनी का, सिद्धांत-व्यवहार का दुराव बना रहेगा।
जीवन के प्रति सम्मान और ईमानदारी का भाव न होने के कारण हम कहने-करने के बीच सदा फासला रखते आये। कहना कुछ और करना कुछ - यह दोहरी और दोगली नीति आज देश के किस हिस्से में गूंथी हुई नहीं है? ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे' की बातें तो सदियों पहले उन किताबों में कह दी गयीं जिनकी चौपाइयों को हम हर धर्मकांड में बोलते-दोहराते हैं। रही सही कसर उन लोगों ने पूरी कर डाली, जो समाज और साम्राज्य का नेतृत्व करते हैं। किसी से पूछो राजनेता के लक्षण क्या हैं? तो सीधा-सा जवाब होगा जो अपना उल्लू सीधा करे । नेता के मानो तीन ही काम बाकी बचे हैं - चाटन-भाषण-उद्घाटन। मन में आए सो बोलो, करना-धरना तो कुछ है नहीं, मंसूबे करने और अधरों के आश्वासन देने में कौन से पैसे लगते हैं! 'वचने का दरिद्रता!' बोलने में कैसी कंजूसी! सबके भाषण, भाषण भर रह गये हैं। 'बिल्ली सौ-सौ चूहे खाकर हज करने को चली'।
चाटन, भाषण, उद्घाटन! चाटन की आदत तो आम आदमी में पैठ गई है। जब तक स्वधर्मी वात्सल्य/जीमनवारी की खबर न फैलाओ, तुम्हारे बड़े-से-बड़े कार्यक्रम 'फ्लॉप' जाएंगे, कई बार तो सुपर फ्लॉप। संतों के प्रवचन के बाद सिक्के और लड्डू बांटने ने तो ऐसे हालात कर डाले हैं कि जैसे ब्याह की घोड़ी के आगे नाचो, तो वह दो कदम चले, नहीं तो चौराहे पर अपनी बेइज्जती करवा बैठो।
मानव हो महावीर / ३५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
___www.jainelibrary.org