SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पता नहीं चलेगा अन्यथा सौ-सौ सामायिक कर लो तो भी राख अंगारा बन जाएगी, जला डालेगी। यही होता भी है। तपस्या करने वाले अधिकांश लोग चिड़िचड़ाते हैं। मुझे एक संत के साथ रहने का मौका मिला। वे उपवास करते तो गुस्सा भी करते। मैं उनसे कहता कि आप भले उपवास न करे, खाना खा लें। क्रोध शांत हो जाए तो तपस्या अपने आप हो जाएगी, अन्यथा तपस्या केवल शरीर सुखाने की होगी, अन्तर्दशा नहीं बदलेगी। मनुष्य की विडम्बना यही है कि वह अन्तरस्थिति को नहीं बदल पाता, बाहर ही घूमता रहता है। जंगल में खड़े रहकर तपश्चर्या करने वाले राजर्षि प्रसन्नचन्द्र मनोभावों के कारण मरने पर सातवीं नरक को प्राप्त हो जाते पर अन्तर्दशा सुधरी तो प्रसन्नचन्द्र मुक्त हो गए। उन्हें वेश, पोशाक या लिंग ने मुक्त नहीं किया। इससे हम समझ सकते हैं कि ऊपर का वेश अर्थ नहीं रखता। मनुष्य की दृष्टि सम्यक् और उदात्त हो जाए तो वह क्रोध तो क्या, काम का सेवन भी कर ले तो भी उसके कर्मों की निर्जरा होगी। तीर्थंकरों, अवतारों ने भी विवाह किये। मतिज्ञान-श्रुतज्ञान आदि के संवाहक होते हुए भी तीर्थंकरों ने विवाह किए। उनके बच्चे हुए। जरा सोचो महावीर ने संसार में आने के दो दिन में ही मेरु पर्वत पर इन्द्र के मन में होने वाली शंका को जान लिया था, तो क्या वे यह नहीं जानते थे कि मैं जो विवाह कर रहा हूं, वह ब्रह्मचर्य में बाधक होगा। ब्रह्मचर्य का संबंध विवाह से नहीं है। महावीर जानते थे कि भीतर जन्म-जन्मान्तर से संवेग भरे पड़े हैं। मुझे इन्हें भोगकर समाप्त करना है। सम्यक् दृष्टि व्यक्ति चाहे चेतन द्रव्यों का सेवन करे या अचेतन का; सजीव का उपयोग करे या निर्जीव का, उसके द्वारा तो कर्मों की निर्जरा ही होगी। सवाल अन्तर्जागरूकता का है, अन्तर्दशा का है। इसलिए मैंने कहा कि महावीर के सिद्धांतों के बारे में, उनके नारों को बनाने में इतनी उठापटक मत करो। महावीर की जीवन-चर्या के बारे में सोचो, उस अन्तर्दशा के बारे में सोचो, जिससे महावीर ‘महावीर' बने। महावीर शास्त्रों के निर्माण से महावीर नहीं बने थे। वे इसलिए भी महावीर नहीं बने थे कि उन्होंने बहुत सारे सिद्धांत दिये। वे केवल मानव हो महावीर / १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003962
Book TitleManav ho Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1995
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy