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आया। हाथियों ने उन्हें उठाया, जमीन पर पटका, पांवों से रौंदा पर उनकी ऐसी महान वज्र-काया थी कि उन्हें कुछ भी न हुआ। यह भक्ति की एक अतिशय दृष्टि है। हमारी भक्ति ने इन अमृत-पुरुषों को वह रूप दे दिया है जिससे हमें लगता है कि हम कभी महावीर नहीं हो सकते, राम नहीं हो सकते। इसलिए हम जीवन भर राम और महावीर को पूजते जाते हैं। लेकिन एक बात जिसे मैं अपने भीतर खुद जीता हूं वह यह है कि मैं पूजा के लिए पैदा नहीं हुआ। मैं परमात्मा को प्रणाम करता हूं इसलिए कि मेरे भीतर भी परमात्मा है। हमें भी वही होना है। मनुष्य का जन्म पूजा के लिए नहीं, चेतना के सम्पूर्ण विकास के लिए है, मनुष्य मुक्ति के लिए है।
आपकी साधना तभी आगे बढ़ेगी, जब आप यह सोचेंगे कि महावीर का शरीर भी मेरे जैसा ही हाड़-मांस, अस्थि-मज्जा-रुधिर का ही बना हुआ था। वह भी मां के गर्भ से पैदा हुए थे और स्त्री-गर्भ से उत्पन्न कभी वज्र-काया वाला नहीं हो सकता। कहते हैं ईसा मसीह कुंआरी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। यह सब अतिशयोक्तियाँ हैं। हम इतने महान पुरुषों को क्यों ऐसी छोटी-छोटी बाहरी बातों के साथ जोड़ रहे हैं और उन्हें बाह्य दृष्टि से महान बना रहे हैं।
महावीर की महानता इसलिए नहीं है कि उनका समवसरण रचता था और देवी-देवता आते थे बल्कि वे खुद में जीकर महावीरत्व को, महानता को उपलब्ध हुए। अगर महावीर की जीवन-चर्या को देखो तो शायद कुछ घटित हो सके। सिद्धान्तों को पढ़ने-सुनने मात्र से क्या होगा? शहर में तो इतने बड़े स्वाध्यायी लोग हैं, इतने धुरंधर पंडित हैं कि उन्हें ज्ञान देने की जरूरत नहीं है। पर मुझे नहीं लगता कि दीप तो बहुत दूर की बात है कोई चिंगारी भी हो। हां, चिंगारियाँ हैं, आग है मगर वह आग ध्यान की आग नहीं है, प्रेम की ज्योति नहीं है। वह, वह घृणा, द्वेष, वैमनस्य और एक-दूसरे को काटने-पछाड़ने की है। आग दियासलाई की ऐसी आग है जिसका काम दूसरे के घरों को जलाना है। वे चाहते तो उस दियासलाई से रोशनी कर सकते थे, खुद का और औरों का अंधकार दूर कर सकते थे। पर वे सिर्फ आग लगा रहे हैं। वे नहीं जानते कि घर के चिराग से, वे औरों के नहीं अपने ही घर में आग लगा रहे हैं।
प्रकाश उनके लिए है जिनके पास कोई आंख है। जिनके पास आंख ही नहीं, उनके लिए हर प्रकाश अंधकार है। दोष प्रकाश का नहीं, दोष हमारी उस अन्तरदृष्टि का है जिसमें प्रकाश को पहचानने की कोई तहज़ीब ही नहीं। आज भी महावीर हो सकते हैं, हुआ जा सकता है निश्चित ही। मैं आपको बार-बार
अमृत की अभीप्सा/४
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