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होगी। वह गृहस्थ के घर जाएगा, वहाँ तरह-तरह की चीजें देखेगा पर उसकी नजर तो रोटी छोड़कर मिठाई, फल पर टिकी रहेगी। गृहस्थ कहेगा महाराज रोटी देऊँ! महाराज कहेंगे नहीं रोटी तो बहुत हो गई, हाँ वह ले लो, वह यानी मिठाई। जो मौनपूर्वक खाते हैं, खाते वक्त बोलते नहीं, सिर्फ इशारा करते हैं, जो भोजन के लिए साधु बनेगा, सभी जानते हैं उसके इशारे किसकी ओर होंगे। क्योंकि वह भूख के कारण साधु बना है इसलिए उसे सिर्फ भोजन ही दिखाई देगा। भूखे को तो भोजन में ही परमात्मा दिखाई देता है। उसे भोजन के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता। आप तो साधु की कहते हैं, अगर आप भी भूखे होंगे तो यहाँ आकर भी, मेरे पास आकर भी यही सब देखना चाहेंगे। नहीं? मैं संतों का सम्मान करता हूँ। संत में अरिहंत की आभा होती है। संत वह, जो शांत है - उद्वेगों और उत्तेजनाओं से रहित है। मुनि वह जो मौन है, मन के कोलाहल से मुक्त है, स्थितप्रज्ञ है। रोजीरोटी मनुष्य की समस्या हो सकती है, पर रोटी के लिए तुम साधु का बाना पहन लो, यह संत नहीं, तुम्हारा अंत है।
और आज सही संत कम, रोजी रोटी वाले संत ज्यादा मिलेंगे। हिमालय तक में तुम्हें ऐसे संत मिल जाएंगे। गंगोत्री मंदिर के बाहर एक संत को पांच-पांच/दस-दस पैसे मांगते देखा, तो मैंने उससे पूछा कि ये क्या भिखारी का काम करते हो। तुम संत हो, तो .....। जो भी हो, आदमी फिर भी कुछ ईमानदार था। कहने लगा, जी, मैं संत नही हूँ। तो फिर ये चोगा क्यों पहना है । कहने लगा, गुरुजी! इसको पहनने से भीख मिलने में थोड़ी सुविधा रहती है। रोजी-रोटी की समस्या के कारण बना संत, संत नहीं, साधुता का मुखौटा है। यहाँ तक कि न केवल उनका वेश, वरन् त्याग और तप भी ऊपर-ऊपर है, दिखाऊ भर है। आज से करीब बारह वर्ष पूर्व जब मैं अहमदाबाद में था, मैं नया-नया था
और एक संत जो हमारे यहाँ आया करते थे, साल में एक बार भी नहीं नहाते थे, एक बार भी कपड़े नहीं धोते थे, इतने क्रिया-चुस्त कि हम देखकर दंग रह जाते थे। एक वक्त का भोजन करना, एक वक्त पानी पीना, हम देखकर चकित थे। उनके शरीर से गंध आती थी, पर वे नहीं नहाते थे। मैं उनका सम्मान-आदर करता था और यह मानता था कि
चलें, सागर के पार/८४
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