________________
ध्यान किसी का एकाधिकार नहीं, वरन् मानवाधिकार है। आखिर ऋषि-मुनि, गुफावासी भी मनुष्य ही हैं। राग-द्वेष के जोड़-तोड़ और उठापटक केवल ऋषियों को ही समाप्त करने हों, ऐसा नहीं है। मनुष्य मात्र के लिए सृजन का मार्ग है। विध्वंश का मार्ग संस्कृति का आधार कभी नहीं हो सकता। सृजनशील प्रतिभा द्वारा अगर विध्वंश भी होगा, तो नये सृजन के लिए और विध्वंशक मनोवृत्ति के द्वारा सृजन भी होगा तो उसके पीछे विध्वंश-विस्फोट की बू होगी। ध्यान का मूल उद्देश्य है, मनुष्य को पूरा मनुष्य बनाना। किसी को हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई बनाना ध्यान की यात्रा का लक्ष्य नहीं हो सकता। अच्छा हिन्दू, अच्छा जैन होने से अच्छा इंसान प्रकट नहीं हो सकता। एक इंसान ‘बेहतर' इंसान बनेगा, तो वह स्वतः अच्छा हिन्दू, अच्छा जैन, अच्छा बौद्ध हो जाएगा। मनुष्य के भीतर शैतान भी है, इन्सान भी, और भगवान भी है। नरक
और स्वर्ग मनुष्य के मन की ही अलग-अलग प्रतिकृतियाँ हैं। मनुष्य का संस्कारित मन स्वर्ग है और विकृत मन नरक। मुक्ति मन के स्वर्ग-नरक के दोनों पहलुओं से ऊपर उठ जाने का नामकरण है। भगवान, मनुष्य की श्रेष्ठतम, महानतम स्थिति है। उसका इंसान बने रहना, उसकी सहज, पर अच्छी अवस्था है। शैतान 'इंसान' की गिरावट है। इंसान की उन्नत अवस्था 'भगवान' है। और 'पतन' अवस्था शैतान। ध्यान शैतान को इंसान और भगवान बनाने की युग-युगीन मानवीय कला
मनुष्य और जगत के बीच परिपूर्ण सम्बन्ध है। मनुष्य केवल अन्तर्मुखी नहीं रह सकता। वह केवल बहिर्मुखी होकर भी चैन से नहीं जी सकता । जीवन की पूर्णता किसी से टूटने में नहीं, सबसे जुड़ने में है - स्वयं से भी, जगत से भी। मनुष्य तो देहरी का दीप है, जिसे अन्तर्जगत को भी प्रकाशित रखना है और बहिर्जगत को भी। भीतर-बाहर का द्वैत भी क्यों, सम्पूर्ण जगत को ही प्रकाशित करना है। आखिर जगत उसी की तो प्रतिध्वनि है। मनुष्य जगत् से हटकर नहीं है। ऋषि-मुनि भी जगत् में रहते हैं। धरती के जहाज में सभी सवार हैं। आखिर न घर धरती से अलग है और न गुफा । ध्यान सार्वजनीन है, सारी मानवजाति के लिए ग्राह्य मानस-विज्ञान
परमात्मा : चेतना की पराकाष्ठा/७०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org