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जब व्यक्ति को ऐसा ज्ञान उपलब्ध होता है तो उसके भीतर एक चारित्र, दर्शन, आत्मश्रद्धा, आत्म-विश्वास प्रगट होता है कि दुनिया हिल जाए लेकिन वह अपने मार्ग से कभी नहीं डिगेगा। क्योंकि जो उसने जाना है वह अटल है ।
इसलिए सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति पर जो पहली चीज उपलब्ध होती है वह है हंस-दृष्टि । वह दृष्टि जिससे सत्य-असत्य, विद्या अविद्या, प्रकाश- अंधकार के भेद को समझा जा सके। जीवन में से दोहरापन चला जाए। कथनी-करनी एक हो जाए। कथनी-करनी की, विचार-कृत्य की एकरूपता मनुष्य-जीवन की आन्तरिक सादगी है । अपने भीतर का विश्वास जगाने के लिए, अपने अस्तित्व के प्रति आस्था जगाने के लिए ज्ञान का सम्यक् और निर्मल होना जरूरी है । व्यक्ति का ज्ञान जितना निर्मल व सम्यक् होगा वह उतना ही सम्यक् रूप से जिएगा, लोक व्यवहार को सम्यक् रूप से निभाएगा और जीवन को अत्यन्त उत्सव और आनन्द के साथ घटित करता हुआ सम और विषम दोनों ही परिस्थितियों में अपने आप को संतुलित और स्थितप्रज्ञ बनाए रखेगा। यही सम्यक् ज्ञान का परिणाम है। समझदार आदमी अभावों में भी स्वभाव में रहेगा और नासमझ आदमी अनुकूलता के बावजूद विपन्न, खिन्न और तनावग्रस्त रहेगा । नासमझ और अज्ञानी होकर सौ साल जीने की अपेक्षा समझदार और ज्ञानी होकर सौ दिन जीना ज्यादा श्रेष्ठ है ।
ज्ञान, ध्यान जितना ही जरूरी है । मैं जिसे सम्बोधि कहता हूं, वह सम्यक् ज्ञान का ही पर्याय है । सम्यक् बोध ही सम्बोधि है । सम्बोधि ज्ञान की सचाई है, सम्यक्त्व है। ज्ञान स्वाध्याय से उपलब्ध होता है, मनन से उपलब्ध होता है, अनुभव से उपलब्ध होता है । जो ज्ञान-वृद्ध है, वह पूज्य है, सम्माननीय है । वृद्ध तो बहुतेरे होते हैं, पर जिसे सही अर्थ में वृद्ध कहा जा सके ऐसे वृद्ध कम होते हैं। उम्र से बूढा होना बुढ़ापा है पर ज्ञान को जीना बन्धन - मुक्ति है। इस हैसियत से बूढ़े बूढ़े होकर भी बच्चे जैसे हैं और बच्चे उम्र से बच्चे होकर भी वृद्ध हैं ।
धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, उचित-अनुचित, लोहा- सोना, करणीय-अकरणीय - सब के बीच भेद-रेखा खींचने वाला ज्ञान है। जिसकी आत्मा की सुई ज्ञान के धागों में पिरोई हुई है, वह संसार के पचरे और कचरे में गिरकर भी खोती नहीं है, मिल जाती है। ज्ञान अगर सम्यक् है, सत्य, शिव, सुन्दर
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ६७
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