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मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे में जाकर हम परमात्मा को मान भी आते हैं कि हमने प्रभु को नमस्कार कर लिया। मस्जिद में जाने से खुदा को और मंदिर में जाकर परमात्मा को माना तो जा सकता है लेकिन जाना नहीं जा सकता। जानना तो तभी होगा जब हमारे प्रायोगिक जीवन में हम हर किसी में परमात्म-स्वरूप का निरीक्षण करेंगे। हमारे व्यवहार में, हमारी दृष्टि में, हमारी वाणी में, हमारे चिन्तन में, जहाँ सर्वत्र प्रभुता प्रगट होती है वहीं पर परमात्ममय जीवन बनता है।
अगर मानने से ही परमात्मा मिल जाए तो एक अंधा व्यक्ति प्रकाश के बारे में मानता तो बहुत है, प्रकाश के बारे में बातें भी कर सकता है, शास्त्र भी सुना सकता है लेकिन इतने मात्र से वह परमात्मा और प्रकाश को जान नहीं लेता। प्रकाश, प्रकाश है। यह प्रकाश उन्हीं को मिलता है जिनके भीतर अपनी अन्तरदृष्टि होती है। शेष के लिए तो परमात्मा सिर्फ एक शब्द है, एक परम्परा से, रुढ़ि से आया हुआ शब्द है, कहीं कोई जीवंतता नहीं है। अगर तुम मुझमें और मैं तुममें परमात्मा नहीं देख सकता तो मन्दिर और मस्जिद जाकर भी परमात्मा नहीं देखा जा सकता। मंदिर में जाकर वहाँ पत्थर की प्रतिमा दिखाई देगी, परमात्मा की प्रतिमा दिखाई नहीं देगी। इसलिए जीवंतता चाहिए। इतनी जीवंतता कि हमारा जीवन ही परमात्ममय हो जाए। सबमें प्रभु को देखना, यह सूत्र है।
परमात्मा की याद उन्हीं को आती है जिनके अन्तरघट में उसकी प्यास जग गई है। अपने ही बनाए परमात्मा के सामने प्रार्थना करने से कुछ नहीं होगा। उस परमात्मा की प्रार्थना और अर्चना करो जिसने तुम्हारा निर्माण किया है। अपने बनाये परमात्मा की प्रार्थना करोगे? या उस परमात्मा की प्रार्थना करोगे जिसने तुम्हारा सृजन किया है? सर्वदिशा में परमात्मा है। चारों ओर वह है। पेड़-पौधे, पत्ती, पहाड़ सब जगह पर है लेकिन वह हमारे अपने ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब रूप है।
तुम परमात्मा को भी बाहर ही ढूंढते हो। अगर बाहर ही परमात्मा को ढूंढते रहे, सुख की, आनन्द की, महाजीवन की तलाश करते रहे तो बाहर प्रकृति है और भीतर पुरुष है। बाहर कुदरत है और अन्दर परमात्मा है। परमात्मा की यात्रा अतीन्द्रिय होती है। जब हमारी प्रवाहात्मक चेतना अवरुद्ध और शान्त हो जाती है, जहाँ इन्द्रियाँ व्यर्थ हो जाती हैं वहीं ध्यान सार्थक होता है। जहाँ इन्द्रियाँ
और मन निरर्थक हो जाते हैं वहीं ध्यान सार्थक होता है। इसलिए यह मन और इन्द्रियों के पार की अतीन्द्रिय यात्रा है। केवल बाहर ही ढूंढते रहे अपने भीतर न ढूंढा परमात्मा के सुख को, तो परिणाम यह होगा कि तुम जहाँ ढूंढने जाओगे,
परमात्मा : चेतना की पराकाष्ठा/५८
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