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के प्रति तो वह झुकेगा जिसका स्वयं का आत्मबल या बाहूबल नहीं है। लेकिन दूसरा मार्ग परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाने का है, अपने अहंकार के मस्तक को नमा देने का है। इस मार्ग पर चलने वाले लोग अगर मंदिर जाते हैं तो जहाँ जूते खोलते हो वहाँ अपने अहंकार को भी अपने दिमाग से उतारकर रख दीजिएगा। अहंकार को साथ ले गए तो मंदिर जाना नहीं हो पाएगा।
एक मार्ग राम का है, दूसरा मार्ग महावीर का है। एक मार्ग मीरा का है, दूसरा शंकराचार्य का है। एक मार्ग चैतन्य महाप्रभु का है दूसरा मार्ग गोरखनाथ
और आनन्दघन का है। एक मार्ग रामकृष्ण का है और दूसरा मार्ग उन लोगों का है जो स्वयं ही परमात्मा होने में विश्वास रखते हैं। मीरा का मार्ग अहोभाव का है और आनन्दघन का मार्ग अहोयोग का है। जो भावनाओं में जीते हैं उनके लिए मीरा का मार्ग है, शेष के लिए आनन्दघन और गोरखनाथ का मार्ग है | मीरा, चैतन्य का मार्ग बड़ा सरल है। झुक गए, अहंकार नमा दिया, नतमस्तक हो गए, परमात्मा की आभा हमारे भीतर प्रगट होने लग जाएगी। जब हम स्वयं ही परमात्मा हो जाएंगे, हमारे भीतर परमात्म-स्वरूप प्रगट होगा तब दुनिया के शास्त्र तो होंगे ही, हमारी अपनी वाणी भी शास्त्र हो जाएगी। जब कोई स्वयं ही सद्गुरु, तीर्थंकर या परमात्मा हो जाएगा तब महावीर ऋषभ, पंतजलि या बुद्ध की वाणी ही शास्त्र नहीं होगी, अपितु उसकी वाणी भी शास्त्र हो जाएगी।
परमात्मा तो हमारा स्वभाव सिद्ध अधिकार है। परमात्मा को खोजना नहीं होता, स्वयं परमात्ममय होना होता है। अपने में और दूसरे में परमात्मा को देखने की ग्रहणशक्ति को प्रगट करना होता है। जब कोई स्वयं में अपने प्रभु को देखता है तो उसकी दीनता की ग्रंथि समाप्त हो जाती है। यह भाव समाप्त हो जाता है कि मैं दीन-हीन-गरीब-छोटा या दरिद्र हूँ। जब व्यक्ति दूसरे में प्रभु मानेगा तो भीतर के अहंकार की ग्रंथि कि मैं औरों से वड़ा, मैं दूसरों का गुरु। यह गुरुता की ग्रंथि समाप्त हो जाएगी। जब कोई दूसरे को प्रभु मान रहा है तो गुरुत्व का अहंकार प्रगट ही कैसे होगा? जव व्यक्ति हर किसी में परमात्मा को स्वीकार करता है तो उसके भीतर से असमानता की ग्रंथि कि यह छोटा, यह बड़ा, ऊंचा-नीचा, काला-गोरा, अंग्रेज-हिन्दुस्तानी, आर्य-अनार्य इस प्रकार की सारी असमानताएं चली जाती हैं और तव वह सभी के साथ सम्माननीय व्यवहार करेगा। नौकर-मालिक का भेद समाप्त हो जाएगा। मानवता के धरातल पर तभी सही अर्थों में साम्यवाद की स्थापना होगी।
परमात्मा को मानना नहीं है, उसे जानना, पहचानना और दर्शन करना है।
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/५७
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