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चाहता है तो रख सकता है। व्यक्ति सब कुछ करते हुए भी अगर उसका लक्ष्य मुक्ति है तो वह हर तत्त्व से मुक्ति हासिल कर लेगा। ऐसा हुआ भगवान महावीर के शिष्य हुए नन्दिसेन । नन्दिसेन भगवान के पास पहुंचे, उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर कहने लगे प्रभु मैं आपके मार्ग पर चलना चाहता हूँ। आपका संयम-पथ स्वीकार करना चाहता हूँ। भगवान ने कहा नन्दिसेन अभी जल्दी नहीं है आराम से स्वीकार करना। लेकिन नन्दिसेन अपनी बात पर अड़ गया कि मुझे तो यह मार्ग स्वीकार करना ही है। भगवान ने कहा अगर ऐसी बात है तो जरूर स्वीकार करो। पर पहले अपने माता-पिता से अनुमति ले आओ। ऐसा कहकर नन्दिसेन को रवाना किया। महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम ने पूछा, भगवन् आपने पहले तो नन्दिसेन को मना किया और बाद में आप ही ने कह दिया अच्छा दीक्षा ले लो। कहीं कोई संशय था? महावीर ने कहा, हां। अभी तो इसके मन में बहुत तीव्र भाव है कि मैं मुनि बनूं, साधू-श्रमण बनूं। लेकिन इसके जीवन की नियति, जीवन के संयोग आने वाले कल में ऐसे हो जाएंगे कि इसे अपने गृहस्थाश्रम का सेवन करना पड़ेगा। गौतम ने कहा, प्रभु जब आप जानते हैं कि यह गृहस्थी का पुनः सेवन करेगा तो आपने अनुमति कैसे दे दी? भगवान बोले, वत्स यह भले ही गृहस्थ का सेवन करे, या एक बार मार्ग से फिसल भी जाए लेकिन आज इसकी जो श्रद्धा बनी है और जीवन-लक्ष्य का निर्माण हुआ है यही लक्ष्य इसे पुनः इसी मार्ग पर ले आएगा। भले ही यह दुनिया की निगाह में फिसला हुआ कहलाए लेकिन आज इसकी जो श्रद्धा है वही श्रद्धा उस दुश्चारित्र से सम्यक् चारित्र पर लाकर खड़ा कर देगी। भगवान ऋषभदेव के मंडप में जब ऐसी ही चर्चा चली कि सम्राट विश्व-विजेता भरत की मरने के बाद कौनसी गति होगी। ऋषभ ने कहा यह इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त कर लेगा। लोगों ने सोचा, जो व्यक्ति सम्राट है, इतने पाप और अनाचार करता है, जिस व्यक्ति के द्वारा इतनी सारी रानियों का पोषण होता है, सारे साम्राज्य में इतने दण्ड दिये जाते हैं, क्या वह इसी जीवन में निर्वाण और मोक्ष को उपलब्ध हो सकेगा? भरत चक्रवर्ती के कानों तक यह बात पहुंची। भरत ने उस व्यक्ति को बुलाया और कहा मैं तुम्हें तेल से भरा हुआ कटोरा देता हूं। तुम इस कटोरे को
चेतना का ऊर्धारोहण/५०
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