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में सब कुछ अनुभव कर सकते हैं। चित्त और आत्मा के मध्य अधिक दूरी नहीं है। चित्त का निर्माण पौद्गलिक होता है लेकिन आत्मा का सम्बन्ध जीवन्त ऊर्जा के साथ होता है। जैसे अंगूरों को सड़ाकर शराब बनाते हैं तो उसमें नशा अपने आप आता है ठीक वैसे ही शरीर के निर्माण के साथ मन व चित्त का निर्माण स्वयमेव हो जाता है। कर्म-विज्ञान जिसे कर्म की प्रकृति कहता है योगविज्ञान और मनोविज्ञान उसे चित्त (साइक) कहता है। मनुष्य के मन की चेतन और अचेतन दो स्थितियाँ होती हैं। अचेतन-मन चित्त और चेतन-मन मन है। दिन भर उठने वाले विचार चेतन मन है और रात्रि में जो स्वप्न देखते हैं वह अचेतन मन की सक्रियता है। इस चेतन और अचेतन मन को जहाँ से चेतना प्राप्त हो रही है, इन सारे तारों में जिस केन्द्र से विद्युत प्रवाहित हो रही है वह 'आत्मा' है। शब्द गौण है अस्तित्व मुख्य है। आत्मा वह तत्व है, जो जीवन की मूल सचाई है, जिसके रहते हम जीवित हैं और जिसके निकल जाने के बाद हम मृत हो जाते हैं । वह तत्त्व आत्मा है जिसे हम 'मैं' कहते हैं। मैं का वाच्यार्थ ही 'आत्मा' है। हमारे भीतर रहने वाला जो तत्त्व यह जानता है कि 'यह सुख और यह दुःख' वही तत्त्व आत्मा है। आत्मा को यह ज्ञान चित्त, मन, इन्द्रिय, मस्तिष्क, स्नायु तंतु, हमारी ग्रंथियां, मेरुदण्ड की सक्रियता (काम करने) से होता है। आत्मा अंधविश्वास नहीं, विश्वासों का विज्ञान है। आत्मा वह चेतना है, जिसमें पदार्थ, प्रकृति और जीवन के रहस्यों को खोजने की ललक है। आत्मा यानी तुम स्वयं यानी वह जो जीवन को 'जीवन' बनाये रखता है। बगैर आत्मा का जीवन, जीवन नहीं मुर्दा है, बगैर परिदे का पिंजरा
इसलिए बेहतर होगा इस ध्यान-शिविर में आप अपने ध्यान को केन्द्रित कीजिए। हो सकता है प्रायोगिक रूप में आपको अहसास हो जाए कि मन के पार भी कोई चीज है। कोई सत्ता है जहाँ से ये संवेग आ रहे हैं। जब वे संवेग शान्त होंगे, चित्त शांत होगा तब आपको अपनी चेतना का स्पंदन अनुभव होगा। स्वयं की चैतन्य-स्वरूप में प्रतिष्ठा होगी। अनुभूति पर अधिक बल दीजिए और अधिक प्रयास कीजिए। जीवन के अन्तर
मनुष्य का अंतरंग/३०
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