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जग जाए, समकच-बुद्धि जग जाए, सामायिक भावना जाग जाए, अपने-पराए का भेद मिट जाए। अपनेपन का भाव सबके साथ होने पर व्यावसायिकता समाप्त हो जाएगी। जैसा दूध हम अपने बेटे को पिलाएंगे वैसा ही बेचेंगे भी। ऐसा करने पर व्यवसाय भी शुद्ध धर्माचरण हो जाएगा।
ध्यान के द्वारा यही प्रयोग करना है कि अपने और परायेपन की भेद-रेखा मिट जाए। लालची और लोभी जो मिलावट की दवाएं बेचता है कभी भी अपने बीमार बेटे को मिलावटी दवाएं नहीं देगा। एक रिश्वतखोर दूसरे से रिश्वत ले सकता है लेकिन खुद के बेटे का सवाल आने पर रिश्वत न ले सकेगा । यही अपनेपन का भाव जब सबके लिए हो जाएगा तब व्यवसाय भी धार्मिकता में परिणत हो जाएगा । मेरे लिए आप सभी एक जैसे हैं, एक बराबर हैं, आत्म-मित्र हैं। कौन अपना और कौन पराया ? ज्योति से ज्योति जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो। सबके लिए तुम्हारा प्रेम हो । तुम्हारे लिए प्रेम के पात्र भले ही बदल जाएं लेकिन तुम्हारा प्रेम अखण्ड, गंगा की तरह अविरल बहता रहे। प्रेम नहीं बदलना चाहिए। भेद की स्थिति बदल जाए, वह स्थिति जग जाए जिसे गीता स्थितप्रज्ञता कहती है, अनासक्ति कहती है ।
यह सब सम्भव है, जो व्यावहारिक जीवन में घटित हो सकती है । हमारा मस्तिष्क, हमारी ऊर्जा और अधिक सक्रिय हो सकती है। केवल ध्यान की गहराइयों में डूबने की आवश्यकता है । हमारा प्रयास होना चाहिए कि अधिक सक्रियता आए, चित्त की शुद्धि हो, हमारे विकल्प निर्बल बनें और अच्छी सम्भावनाएं जाग्रत हों। मेरा प्रेम और मेरी शुभकामनाएं आपका साथ निभाए ।
नमस्कार ।
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / २
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