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________________ है। मन जितना अधिक काम करता है उतनी ही मनुष्य के लिए परेशानी हो जाती __ आपका पड़ोसी मिलने आता है तब मस्तिष्क कार्य करता है और जब वह चला जाता है तब मन सक्रिय हो जाता है। ‘नहीं-नहीं' मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। मैंने ऐसा कह दिया, गलत परिणाम निकल सकता है। कोई बात नहीं, अब कल जब वह मिलेगा तो मैं अपनी बात इस तरह घुमाकर कहूँगा। ऐसा कहूंगा - अब यह मन चल रहा है। मस्तिष्क का कार्य पूरा हो गया और मन चलता चला जाता है। चित्त में जो दमित इच्छाएं, सम्भावनाएं छिपी रहती हैं उन्हें मन चेतना देता ध्यान के द्वारा व्यक्ति अपने उस चित्त को उधेड़ता है, कुरेदता है। चित्त में जो भी समाया हुआ है - माटी या सोना - उसे जगाने का प्रयास करता है, उखाड़ने का प्रयास करता है। जब चित्त उखड़ता है तो बहुत जोरों की धूल उठती है लेकिन जितनी धूल उठती है उतने ही गहरे बादल भी मंडराते हैं। अगर हमने बादलों को संभाल लिया तो धूल मिट जाएगी और सिर्फ धूल पर ही ध्यान केन्द्रित किया तो तूफान में तुम स्वयं ही नष्ट हो जाओगे। बादल पर नज़र डाल दी तो ब्रह्मचर्य घटित हो जाएगा और धूल पर नज़र डाली तो वहीं विकारग्रस्त होकर भोग के मार्ग को ढूंढना प्रारम्भ कर दोगे। आप चाहें या न चाहें चित्त तो उखड़ेगा, विकार तो प्रगट होंगे ही। इसलिए बीस वर्ष का युवक भी क्रोध करता है और साठ साल का वृद्ध भी क्रोध करता है। दोनों ही भोग का मार्ग चाहते हैं क्योंकि धूल उठती है। जब तक इस धूल को समाप्त नहीं किया जाएगा, इस पर बादलों की गहरी वर्षा नहीं की जाएगी तब तक यह धूल हमें परेशान करती रहेगी। आज ही नहीं, मरते वक्त भी परेशान करेगी और जन्म-जन्मान्तरों तक करती रहेगी। विकारों का पथरीला भटकाव जारी रहेगा। अपने चित्त के प्रति हम जितना सावचेत और सावधान रहेंगे, आत्म-जाग्रत रहेंगे, हमारे चित्त के विकार उतने ही कम होते चले जाएंगे। अच्छे संस्कार उठे, स्वागत करो। बुरी बातें उभरकर आएं उन्हें दूर हटाने का प्रयास करो। जब ध्यान करोगे दोनों ही बातें उठेंगी। विकारों के आने पर शोधन की प्रक्रिया अपनाइए, और अच्छी बातों के उठने पर उन्हें अपने जीवन में, व्यवहार में, मूल्यों में उतारने का प्रयास कीजिए। तब हमारे जीवन में आनन्द, अहोभाव घटित मनुष्य का अंतरंग/२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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