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इतनी भी श्रद्धा नहीं है?' इसी के साथ वह खड़ा हुआ और नौका के एक किनारे से दूसरे किनारे पर गया और उफनते हुए तूफान, भड़कती हुई झील को देखकर पहले जोर से हंसा। फिर झील को संबोधित करते हुए कहा, बहुत हो गया, अब शान्त हो जाओ, परिपूर्ण शान्त ।' नाविक चौंके। उन्होंने सोचा क्या इस आदमी पर पागलपन सवार हो गया है? यह तो ऐसे कह रहा है जैसे यह उफनती हुई झील, कोई नन्हा-सा नटखट बालक हो।
लेकिन आश्चर्य तो यह है कि सभी नाविकों ने देखा कि जैसे ही उस आदमी ने कहा, चुप शांत हो जाओ, वैसे ही तूफान थमने लगा। धीरे-धीरे तूफान शांत हो गया। नौका किनारे आ गई।
भगवान यीशू के जीवन की इस घटना को अतिशयोक्ति भी माना जा सकता है। लेकिन मुझे तो आज भी लगता है कि यह कहानी दो हजार वर्ष पुरानी नहीं हुई है। और यह भी कहा नहीं जा सकता कि ऐसी घटना घटित हुई थी या नहीं। लेकिन मैं इस कहानी को सदा प्रतीक रूप में लेता हूँ।
मुझे तो लगता है हमारे भीतर की झील में इस समय भी जोरदार तूफान उठ रहा है। हमारे अपने ही मन की झील में, अपने ही चित्त की नदियों में जबर्दस्त तूफान उठ रहा है कि नाविक परेशान, दुनिया परेशान । सब मुसीबत में घिरे हुए दिखाई देते हैं। कोई सोच नहीं पाता कि क्या मार्ग होगा। लेकिन जो बात यीशू ने कही थी वही बात दो हजार वर्ष पश्चात् मैं पुनः दोहराना चाहता हूँ कि 'क्या अपने-आप पर आस्था खो चुके हो?' जो व्यक्ति अपने-आप पर से आस्था खो चुका है वह जीवन में परमात्मा के प्रति भी आस्था नहीं रख सकेगा। परमात्मा तो दूसरे स्थान पर है, प्रथम स्थान पर तो मनुष्य स्वयं है। परमात्मा आखिरी है, प्रथम मनुष्य है।
जिसका स्वयं पर विश्वास नहीं है उसका दूसरों पर कभी विश्वास नहीं हो सकता। आत्म-विश्वास, परमात्म-विश्वास का पहला और अनिवार्य चरण है। स्वयं का विश्वास खोने वाला और मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारों में जाकर खुदा
और परमात्मा के प्रति अपनी आस्था दिखाने वाला आदमी आत्मच्युत है। तुम अपने आप को धोखा देकर, स्वयं के प्रति अविश्वास करके किसी के प्रति भी विश्वास नहीं कर सकते। आत्म-श्रद्धा और आत्म-आस्था पहली सीढ़ी है।
दुनिया में आस्तिक वह नहीं है जो किसी ग्रन्थ, मन्दिर, मस्ज़िद या परमात्मा के प्रति अपनी आस्था रखता है। आज ये परिभाषाएं पुरानी हो चुकी हैं। पंडे, पुरोहित, पुजारियों की अब सत्ता नहीं है। आज लोकतंत्र है। हमारा और आपका
मनुष्य का अंतरंग/१६
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