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________________ को हटा देगा। जीवन में चिंतन-मनन होना ही चाहिये । मनन ही मनुष्य की परिभाषा है। आत्मा है। धार्मिक मनीषा कहती है, चलो तो इस तरह कि कोई कीड़ा-मकोड़ा न मर जाए। यह अच्छी बात है, अहिंसा का पालन है। लेकिन चलो तो हमेशा यह बोध कायम रखो कि शरीर चल रहा है, मैं तो टिका हुआ हूं। बुद्ध ने अंगुलिमाल से कहा था, मैं तो रुका हुआ हूँ, हो सके तो तुम रुक जाओ। जिसका मन रुका हुआ है, वह चलकर भी अचल है। जिसका मन बह रहा है, वह रुका होकर भी चल रहा है। मनः स्थिति पर ही सब कुछ है। कहते हैं यूनान के बादशाह सिकंदर हिन्दुस्तान में आया और हिन्दुस्तान को जीता। जब वह वापस लौटने लगा तो याद आया कि डायोज़नीज़ ने कहा था कि तुम भारत से चाहे जितनी धन-सम्पत्ति लेकर आना, पर वहाँ से एक संत को जरूर लाना। सिकन्दर को भी यह बात स्मरण में थी कि आखिर ऐसी क्या बात है। जिस गांव में वह ठहरा था, वहाँ उसने अपने सिपाहियों से कहा, आसपास में ढूंढो कोई संत है क्या। देखा, एक संत मिल गया। सिकन्दर ने अपने सिपाही को भेजा, संत को बुलवाया। सिपाही ने संत से जाकर कहा कि महान सम्राट सिकन्दर का आदेश है कि आप उनकी सेवा में चलें। संत ने कहा 'जो आज्ञा मानने वाला था, वह अब नहीं रहा। जो औरों की आज्ञा नहीं मानता वही साधु है।' सिपाही कुछ न समझा, चला गया। सिकंदर चौंका, उसने अपने सेनापति को भेजा। उसने आकर संत से कहा, 'तुम्हें पता है तुमने किस के लिए वह बात कही? तुम्हें चलना पड़ेगा, हर हाल में चलना पड़ेगा, महान् सिकंदर तुम्हें बुला रहा है।' संत ने कहा 'जिसे जरूरत होगी, वह खुद यहाँ आ जाएगा। मुझे तो सिकंदर की जरूरत नहीं है।' सिकंदर यह बात सुनकर कि सिकंदर की भी जिसे जरूरत नहीं है, वहाँ पहुंचा। उसने संत से कहा, 'तुमने किस सम्राट के आदेश की अवहेलना की है, जानते हो?' संत ने कहा, 'हां,' जानता हूं। मैंने उस सम्राट, उस व्यक्ति के आदेश की अवहेलना की है जो अपने आसपास उड़ने वाली मक्खियों तक को भी अपने नियंत्रण में नहीं रख सकता। अगर तुम आदेश दे सकते हो तो इन मक्खियों को आदेश देकर बताओ, मैं भी देखता हूं तुम उन्हें कैसे अपने साथ लेकर जाते हो।' सिकंदर को क्रोध आ गया, कहा, चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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