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________________ पहुंच नहीं है। हालांकि मैं ऐसा न कहूँगा। मैं यह कहूंगा कि जब तुम आत्मा को उपलब्ध हो जाओगे, तो ऐसे प्रश्न स्वयं ही तिरोहित हो जाएंगे, या यूं कहूँ कि तुम्हारी परितृप्ति ही तुम्हारे प्रश्न का जवाब होगी। ऐसा ही हुआ जब बुद्ध किसी मार्ग से गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक आदमी के पांव में तीर लगा था, वह छटपटा रहा था। वे उसके पास पहुंचे और कहा 'वत्स, अपना पांव मेरी ओर कर दो, मैं तुम्हारा तीर निकाल दूं।' आदमी चिल्लाया, 'नहीं, तुम तीर बाद में निकालना। पहले यह बताओ कि तीर किसने मारा, क्यों मारा।' जो गलती उस समय उस व्यक्ति ने की थी हम आज भी वही गलती कर रहे हैं। इस धरती पर जब तक अज्ञान रहेगा ये गलतियाँ दोहराई जाती रहेंगी। तुम अपने तीर को निकाल लो, दर्द खत्म हो गया, जान बची, लाखों पाये। किसने मारा, अब इस पर इतना सिर क्यों खपाते हो? सुरक्षा का इन्तजाम भर कर लो। आत्मा का निर्माण किसने किया? अरे, जब तुमने स्वयं का निर्माण ही अभी तक नहीं किया, तुम्हारा जीवन भी तुमसे नहीं मिला है माता-पिता से पाया है, कौन कह सकता है आत्मा का निर्माण किसने किया है। अतीत के जितने भी प्रश्न उठाओगे वे सभी आकाश में गुब्बारे उड़ाने के समान हैं। अतीत बहुत अच्छा है, लेकिन तभी जब हमारा वर्तमान जीवन महान होगा। इसलिए, इन सवालों को दिमाग से निकाल दो कि दुनिया को किसने बनाया या आत्मा को किसने बनाया। पहले मुर्गी बनी या पहले अंडा बना, कब बना इन प्रश्नों को छोड़ दो। इन सवालों को जीने से हमें कुछ नहीं मिलने वाला। पहले ही दिमाग में बहुत कचरा भरा हुआ है, ऐसे सवालों को लाकर और कचरा क्यों भर रहे हो। तुम तो यह देखने का प्रयास करो कि आज की तारीख में तुम क्या हो? तुम्हारे भीतर कैसी सम्भावनाएं हैं, सृजन की शक्तियां हैं या विध्वंस की? और अगर विध्वंस की शक्तियां हों तो उन्हें कैसे सृजन की शक्ति में रूपान्तरित किया जाए। ध्यान का कार्य विध्वंस की शक्तियों को सृजन में परिवर्तित करना है। ध्यान जीवन को रूपान्तरित करता है, अन्तरदृष्टि का उद्घाटन करता है, आत्मवान बनाता है। जब अन्तरदृष्टि खुलेगी तब तुम्हें उत्तर मिलेगा तुम्हारा निर्माण किसने किया, तुम्हारे भीतर कौन है। शब्दों से नहीं अनुभूतियों चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003960
Book TitleChetna ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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