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कि, ये सीधे मार्ग नहीं हैं। टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडिया हैं। मुझे लगा कि अध्यात्म का संबंध मनुष्य की अन्तरात्मा से है और अन्तरात्मा को निर्मल तथा पवित्र बनाने के लिए ध्यान के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। सारे मार्ग ध्यान तक पहुँचने के साधन हैं। ध्यान को अपनी गतिविधियों के साथ, अपने दैनिक जीवन की क्रियाओं के साथ जोड़ लो तो प्रतिक्रमण भी सार्थक हो जाएगा। पूजा-प्रार्थना भी सार्थक हो जाएगी। अन्यथा इन किताबों की पूजा-प्रार्थना को हजारों बार दोहरा लोगे फिर भी निल रहोगे, सिफर रहोगे। ध्यान में गाओगे, ध्यान में गुनगुनाओगे, ध्यानपूर्वक इनमें जिओगे तब शायद चार शब्द बोलकर भी बहुत कुछ पा जाओगे। ध्यान से निष्पन्न अहोभाव खुद ही प्रार्थना है। अहोभाव में गाये-गुनगुनाये दो बोल भी अन्तर के पट खोलेंगे।
जब शब्द मौन हो जाते हैं और हृदय का मौन मुखरित होता है, तभी वास्तविक आनन्द घटित होता है। मौन से प्रार्थना प्रारम्भ होती है और मौन में ही पूर्ण होती है। मौन प्रारम्भ है, मौन मध्य है, मौन अन्त है। स्वर्ण सोपान है मौन । जब शब्द चुप होते हैं तभी असली प्रार्थना, दुआ और शुभकामनाएं जीवित होती हैं। शब्द गौण, हमारी अन्तरात्मा के स्पंदन, हमारा ध्यान मुख्य । भोजन भी बहुत प्रेम से करो। ऐसा नहीं कहूंगा शरीर को सुखाते चले जाओ और उपवास करो, शरीर में ताकत नहीं है फिर भी लंबे-लंबे उपवास करते चले जाना। अगर शक्ति है जरूर तप करो। भोजन शरीर की आवश्यकता है और आवश्यकता की आपूर्ति करना मनुष्य का कर्म है। भोजन अमुक प्रकार का हो यह मनुष्य की इच्छा है और इच्छा का निरोध करना, संयम करना मनुष्य का धर्म है। आवश्यकता के विपरीत जाना धर्म नहीं, अधर्म है। इच्छा के साथ बहना अधर्म है और इच्छा का नियमन, संयम और शोधन करना धर्म है।
महावीर ने तप की बात कही और उनके अनुयाइयों के लिए आज एक ही धर्म, 'तप' बचा है। महावीर ने यह भी कहा कि मेरे प्रिय वत्स! मैं तुम्हें तप के बारह प्रकार दे रहा हूं लेकिन हमने उनमें से केवल एक प्रकार को ही तप की परिभाषा समझा है, ग्यारह प्रकारों की तो उपेक्षा ही कर दी। नतीजा यह हो रहा है कि तप करके हम परिशुद्ध नहीं हो रहे हैं। जब एक माह तक उपवास करने वाले व्यक्ति को मैं क्रोध करते हुए देखता हूं या दिन में आठ घंटे स्वाध्याय करने वाले को विद्वेष और वैमनस्य की चिंगारियाँ फैलाते हुए देखता हूं तो सोचता हूं कहाँ है तप, कहाँ है धर्म? स्वाध्याय ने जीवन में कौन-सा ज्ञानमूलक परिणमन किया?
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/७
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