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आत्मज्ञान है।
ऐसा मैं अपने भीतर देखता हूँ। अगर आप लोग भी अपने साथ सचेतनता के लगातार अवसर उपस्थित करते चले जाएँ तो आप अपने साथ भी वैसा ही अनुभव करने लगेंगे।
ध्यान के प्रथम चरण में हमने श्वासोश्वास पर ध्यान साधा है। फिर हमने सम्पूर्ण देह-पिंड पर, उसमें प्रवहमान प्राणधारा और उसकी संवेदनाओं पर ध्यान धरा है। अब हम इस देह-पिंड में कुछ विशिष्ट केन्द्रों पर ध्यान धर रहे हैं। नाभि, हृदय और मस्तिष्क- शरीर के ये तीन महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं । नाभि धरातल है, पृथ्वीतल है, हृदय वायुमंडल है और मस्तिष्क आकाशीय क्षेत्र है, मुक्ति का धाम है। नाभि शरीर का तल है, हृदय प्राणों का तल है, मस्तिष्क ज्ञान-विज्ञान और आनंद का तल है। देह से विदेह-भाव में स्थित होना सिद्धक्षेत्र में विहार है। आत्म-भाव लिये हुए हम एक-एक तल पर एक-एक केन्द्र पर क्रमशः ध्यान धरेंगे। अपने चित्त को, जीवनधारा को केन्द्रित करेंगे। निश्चय ही इससे हम अपनी आध्यात्मिक स्वस्थता, आध्यात्मिक शांति, आध्यात्मिक ज्ञान के मालिक बनेंगे।
नाभि हमारे अस्तित्व का मूल केन्द्र है। जन्म का, पोषण का यह आधार है और सम्पूर्ण शरीर का नाड़ीतन्त्र नाभि-केन्द्र से ही जुड़ा हुआ है। माँ के गर्भ में जब हम होते हैं तो हमारा संबंध नाभि से ही होता है। जब बच्चे का जन्म होता है तो नाल बाहर से काट दी जाती है।
जीवन का एक मर्म समझ लें कि नाल बाहर से काटी जाती है लेकिन भीतर का सारा संबंध तब भी बरकरार रहता है। जिन नाड़ीतन्त्रों से भीतर पोषण मिलता है वो नाड़ीतन्त्र जब तक सशरीर रहोगे, तब तक सम्पूर्ण नाडीतन्त्र वैसा ही सुरक्षित रहेगा। इसलिए नाड़ीतन्त्र नाभितन्त्र के इस मूल पर ध्यान देना अस्तित्व के मूल केन्द्र पर ध्यान धरने की तरह हुआ। यह हमारा स्वास्थ्यकेन्द्र है। इससे आप स्वास्थ्य और आरोग्य को भी उपलब्ध होंगे।
मैं सारी दुनिया को यह संदेश देना चाहूँगा कि दुनिया के हर अस्पताल में दस मिनट का ध्यान का प्रयोग अवश्यमेव हो और वो ध्यान का प्रयोग नाभि ध्यान से जानिए स्वयं को
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