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एक गहरी ताज़गी, एक गहरी शांतिमय स्थिति अपने साथ आनी शुरू होगी। इसलिए संबोधि-साधना अपने प्राथमिक चरण में अपने तन-मन को शांतिमय बनाने का अनुष्ठान है। यह जीवन का एक यज्ञ है, जिसमें हमें अपने-आप की आहुति देनी पड़ती है । इस यज्ञ में घी की आहुति नहीं डाली जाती, तुम्हें अपनी ही उत्तेजनाएँ, अपना ही क्रोध, आवेग, अपने ही भीतर चलने वाली खटपटों की आहुति देनी पड़ती है।
मुक्त होना होता है, मन के घेरों से मुक्त होना होता है। मुक्त किसी और से थोड़े ही होना है । पत्नी से मुक्त नहीं होना, पत्नी के प्रति होने वाले वासना के घेरों से मुक्त होना है। एक फेरे तो आपने शादी की थी तब खाये थे, वे फेरे थे जबकि मैं घेरों की बात कर रहा हूँ। वे घेरे जिनके कारण हम मोहमाया में, राग-द्वेष में, दुनियादारी की आसक्तियों में उलझे हुए रहते हैं । हमें उन घेरों से मुक्त होना है।
प्रश्न है क्या आपको मुक्ति चाहिए? कभी अपने-आप से पूछिए कि मुक्त कौन होगा? मुक्ति किससे होगी ? जिन-जिन संबंधों में हमने अपने मन को उलझा रखा है उन उलझावों से मुक्ति पानी होगी । इसलिए प्रत्येक साधक धैर्यपूर्वक अपने-आप में देखे कि कौन-से संबंध उसे बनाये रखने हैं और कौन-से संबंध ऐसे हैं जिन्हें त्याग देना है।
जिन संबंधों की आत्यन्तिक अनिवार्यता हो उन संबंधों को तो बरकरार रखिए बाकी अनावश्यक ढोये जा रहे संबंधों से अपने आप को निर्लिप्त कीजिए । न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर । आईने की तरह अपने आप को बना लें। तुम आए तो हम मुस्कुराए । तुम चले गए तो आईना वापस साफ का साफ हो जाए ।
हम मुस्करा रहे हैं क्योंकि अपनी मस्ती है । हम मुस्करा रहे हैं आपको देखकर, पर वो मुस्कराना भी कैसा मुस्कराना, जो किसी के चले जाने के बाद आँसुओं का बिछौना बन जाए ।
जीवन की वीणा को साधने के लिए ही तो व्यक्ति को मुस्कान देनी चाहिए; मुस्कान लेनी चहिए । निमित्त को पाकर ही मत मुस्कराओ। तुम तो ध्यान से जानिए स्वयं को
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