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जब चलें तो चलते समय भी सचेतनता से चलें । अच्छा होगा, सुबह जब आप योग करते हुए कदमताल करते हैं तो एक-एक कदमताल को पूरी सजगता-तन्मयता से करें। ध्यान की ही एक प्रकिया है- चलते हुए ध्यान करना । इसके लिए आप संबोधि - धाम की छतों का, या अपने घर की बड़ी छत का उपयोग कर सकते हैं। चाँदनी रात में छत पर शांत- मंद चाल से टहलें और अपने प्रत्येक उठते-रखते कदम का बोध रखें। आपके लिए कदमों का उठना-रखना भी साँसों के आवागमन के ध्यान जैसा हो जाएगा ।
और तो और, सचेतनता की साधना करने से क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे कषाय और विकार भी स्वतः कम होने लग जाएँगे । क्रोध हमेशा अचेत अवस्था में ही पैदा होता है । सचेत व्यक्ति स्वतः नियंत्रित रहता है । क्रोध अनियंत्रित होने का प्रतीक है। क्रोध और सचेतनता- दो में से कोई एक रहता है । क्रोध है तो सचेतनता नहीं, सचेतनता है तो क्रोध नहीं । सचेतनता तो खुद
योग है। योग मुक्ति की ओर ले जाता है। योग हमें कषायों के घेरे में नहीं उलझाता । कषाय रोग है । योग रोग का नाशक है। योग हमें आत्मभाव से जोड़ता है और आत्मवान् व्यक्ति आक्रोश नहीं करता ।
आइए, हम सचेतनता को साधें। आधे घंटे एक ही आसन में, एक ही मुद्रा में बैठ सकें, इस स्थिति में खुद को कर लें । शरीर को प्रमाद - रहित करें । सहज सौम्य भाव से सीधी कमर बैंठें । मन में यह संकल्प ग्रहण करें कि मैं स्वयं को शांतिमय बना रहा हूँ । जब- जब आवश्यक लगे अपने संकल्प को दोहरा लें कि मैं स्वयं को शांतिमय बना रहा हूँ । बस, इसी मानसिकता के साथ अपनी साँस-धारा पर ध्यान धरें । साँसों का कुछ देर तक अखंड अनुभव करते रहें । चित्त जब-जब अस्त-व्यस्त होने लगे क्रमश: बीस-तीस-चालीस गहरी साँस लें। विश्वास रखिए ध्यान कल्पवृक्ष के समान है। ध्यान की सुखद छाँव में मन की सारी उधेड़बुन, मन की कामनाएँ स्वत: शांत-तृप्त होने लग जाएँगी। धैर्यपूर्वक ध्यान धरने से घंटों-घंटों का, कई दिनों का और कई दफा वर्षों वर्ष का निषेधात्मक चिंतन निरस्त हो जाता है । आप समझें कि मैं किसी हिमालय की गुफा में या किसी बोधिवृक्ष के नीचे बैठा हूँ। धैर्यपूर्वक स्वयं से, अपने
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शांति पाने का सरल रास्ता
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