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तब कुछ और मत सोचो। यही व्यक्ति की सचेतनता को साधने का गुरुमंत्र होगा। तो मौनपूर्वक भोजन करने की आदत डाल लो और उस दौरान पूरी तरह सचेत होकर भोजन ग्रहण करो। पूरी प्रसन्नता से भोजन करें। एक-एक कौर का आनंद लेते हुए भोजन करें। उखड़े मन से, उचटे मन से, तनावग्रस्त मन से भोजन न करें। जिस मनोदशा से भोजन ग्रहण करेंगे, भोजन भी आपको वैसा ही परिणाम देगा। यहाँ तक कि महिलाएँ अगर भोजन बनाएँ और अपने घरवालों को भोजन भी परोसें, तो इतने स्वस्थ-सचेत-प्रसन्न भाव से कि वह भोजन सकारात्मक परिणाम दे सके।
लोग मेहमान के घर पर आने पर सामने तो कहते हैं कि बड़ी कृपा हुई, आप पधारे। आपके आने से हमारा हृदय बाग-बाग हो गया। वहीं रसोईघर में जाकर जब उनके लिए खाना परोसते हैं तो मन-ही-मन सोचते रहते हैं कि 'घरवालों के लिए तो खाना बनता नहीं, ऊपर से इन बिन बुलाए जवाइयों को और जिमाओ।' अब आप बताइये कि जब इस तरह की अधजली भावनाओं के साथ आप किसी का आतिथ्य करेंगे, तो आपके हाथ से खाए भोजन का सामने वाले के मन पर कैसा असर पड़ेगा?
जब भी खिलाएँ मन से खिलाएँ, आनंद-भाव से खिलाएँ। जिस घर में घर आए मेहमानों का आतिथ्य आनंद-भाव से होता है, अरे, उस घर की तो धूल भी माथे से लगाओ तो वह किसी मंदिर की माटी की तरह पवित्र और पुण्यदायी होती है। बोझिल मन के साथ खाना खिलाने की बजाय तो न खिलाना, या न खाना ज्यादा श्रेष्ठ है। यदि आपके घर के बाहर बोर्ड लिखा हुआ हो- 'कुत्तों से सावधान', तो कृपया उस स्थान पर लिखिए– स्वागतम्/ अतिथि देवो भवः। जहाँ, जिस घर में आतिथ्य-सत्कार का आनंद लिया जाता है, वहाँ नौ ग्रह अपने आप अनुकूल हो जाते हैं । उस घर का दारिद्र्य स्वतः दूर होने लगता है।
सचेतनता की साधना हमें सिखाती है कि व्यक्ति बोधपूर्वक खाए, होशपूर्वक खाए। और तो और, यदि झाड़ भी लगाएँ तो इतनी सचेतनता से कि वह स्वच्छता मंदिर का आंगन बन जाए।
सचेतनता में छिपी है शांति की साधना
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