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सोना पड़ेगा, अगर मैं राजमहलों में होता तो मखमल के बिछौनों पर सोता ।
वह इस तरह के विचार कर ही रहा था कि तभी उस गृहिणी ने कहा, भन्ते, आपका पलंग ऊपर वाला है।' श्रोण यह सुनकर चौंक पड़ा। वास्तव में वहाँ तो मखमली गलीचे के बिछौने लगे हुए थे । वह सो गया । सोये-सोये फिर विचार उठने लगे- 'घर में होता तो सेविकाएँ पंखे बींजतीं । अब संतजीवन में तो ठीक है.... । श्रोण इस तरह की उधेड़बुन में चल रहा है कि तभी उसने देखा दो सेविकाएँ उसके ईर्द-गिर्द आ चुकी हैं और पंखा बींजने लग गई हैं। तभी उसके मन में नया विचार उठने लगा कि खाना तो डट के खाया हुआ है, थोड़ा-सा ठण्डा - ठण्डा पानी पीने को मिल जाए तो तृप्ति आ जाए ।
तभी देखा कि गृहस्वामिनी के संकेत पर एक सेविका आई और कहने लगी, ' भन्ते ! शीतल जल स्वीकार कीजिए।' इस स्थिति को देखकर श्रोण अचंभित हो उठा। वह पानी पी न सका । उसका हाथ काँपने लगा । वह झट से उठ खड़ा हुआ । सोचने लगा कि ज़रूर यह महिला मेरे विचारों को पढ़ने में समर्थ है। मेरे मन में और किसी तरह का विचार उठे, उससे पहले मुझे यहाँ से निकल जाना चाहिए, वरना यह अपना मन ....! कब किससे मानसिक बलात्कार कर बैठे ! मन सबका प्राइवेट होता है। कौन आदमी अपने मन में कब - किस तरीक़े के विचारों से घिर जाता है कोई पता नहीं चलता। बैठा होता है पत्नी के पास, मगर सोच रहा होता है अपनी प्रेमिका के बारे में ।
अब आदमी का पता थोड़े ही है कि यह कब किस विचारधारा में बह पड़े। श्रोण उठा और झट से वहाँ से रवाना हो गया । गृहस्वामिनी ने कहा, ‘भन्ते! थोड़ी देर तो और विश्राम करते।' पर वह कुछ बोल न पाया, उससे कुछ ज़वाब देते न बन पाया। वह तो भागा । भगवान के पास पहुँचकर उसने विश्राम लिया, शांति पाई । उसे लगा, चलो अच्छा हुआ मैं पहुँच गया । वहाँ रहता तो वह कुछ और पढ़ लेती । अतीत में राजकुमार था । पलंग पर सोया था तो सोये-सोये और भी आगे विचार उठ आते।
श्रोण आ गया था वास्तव में मूर्च्छागत अचेत अवस्था में। जब तक व्यक्ति अपने भीतर मूर्च्छित और अचेत रहेगा तब तक उसके मन की यही
सचेतनता में छिपी है शांति की साधना
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