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समाधि भीतर की अलमस्ती है । चेहरे पर दिखाई देने वाली चैतन्य की प्रसन्नता में इसे निहारा जा सकता है । यह किसी स्थान - विशेष की महलनुमा सोनैया संरचना नहीं है, न ही कहीं का स्थानपति होना है, वरन् अन्तरंग की खुली आँखों में अनोखे आनन्द की खुमार है । वह हार में भी मुस्कुराहट है, माटी में भी महल की जमावट है। समाधि शून्य में विराट होने की पहल है । बासना भरी प्यासी आँखों में शलाई घोंपने से समाधि रोशन नहीं होती, अपितु भीतर के सियासी आसमान की सारी बदलियाँ और धुंध हटने के बाद किरण बनकर उभरती है ।
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समाधि तो स्थिति है । वहाँ वृत्ति कहाँ ! प्रवृत्ति की सम्भावना से नकारा नहीं जा सकता । वृत्ति का सम्बन्ध तो चित्त के साथ है, जबकि समाधि का दर्शन चित्त के पर्दे को फाड़ देने के बाद होता है । चेतना का विहार तो चित्त के हर विकल्प के पार है । समाधि में जीने वाला सौ फीसदी अ-चित्त होता है, मगर अचेतन नहीं । चेतना तो वहाँ हरी-भरी रहती है । चेतना की हर सम्भावना समाधि की सन्धि से प्रवर्तित होती है । उसे यह स्मरण नहीं करना पड़ता कि मैं कौन हूँ । उसके तो सारे प्रश्न डूब जाते हैं । जो होता है, वह मात्र उत्तरों के पदचिह्नों का अनुसरण होता है । O
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