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प्रार्थना परमात्मा को निमन्त्रण है । उसका स्तर परमात्मा से नीचा नहीं है। प्रार्थना परमात्मा से महान् है । परमात्मा की पूजा - भावना से सजा हृदय स्वयं परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है । परमात्मा हमारे इर्द-गिर्द है, दूर से दूर भी । जिसे अपने पास परमात्मा दिखाई दे गया, उसे दूर से दूर भी दिखाई देगा । वह अंधा ब्रह्माण्ड में क्या / कहाँ देखेगा, जो हथेली में पड़ी वस्तु को नजरों में निमन्त्रित नहीं कर सकता । रोशनी की पहचान दिये की आँखों में है, अंधेरे की दीवारों पर नहीं ।
परमात्मा बौना है, भूमा भी । यात्री - मन उसे बाहर ढूँढ़ता है और ध्यानीमन उसे भीतर । वह मात्र मंदिर में ही हो, ऐसी बात में सच्चाई झुठलाती है । जो संसार को भी परमात्मा के कोण से नजर- मुहैया करता है, उसके लिए बाजार भी परमात्मा का घर है । संसार की शराब पीकर मन्दिर में जाना कमल की पंखुरियों पर कीचड़ चढ़ाना है ।
सारे हैं। हर मन्दिर किसी मान्यता का प्रोत्साहन है
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मन्दिर तो चित्त की एक भावदशा है । देखो तो सही मन्दिर कितने 1 प्रतिमाएँ अलग-अलग हैं, परमात्मा एक है । परमात्मा के अन्तरंग में अलगाववाद की रेखाएँ नपुंसक हैं । प्रतिमा उस परमात्मा को झांकने का मानवीय दर्पण है । इसी तरह तो परमात्मा के हस्ताक्षरों को छायांकित कर सकता है, हथोड़ी थामे हाथों से प्रस्तर की प्रतिमा में ।
आखिर मनुष्य
अपने छैनी -
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