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मन सक्रिय है। ध्यान मन की सक्रियता को हड़पता नहीं है। उसे निष्क्रिय करके शव नहीं बनाता, बल्कि चेतना के विभिन्न आयामों पर उसे विकसित करता चलता है। जिस मन के कमल की पंखुड़ियाँ अभी कीचड़ से कुछ-कुछ छू रही हैं, ध्यान उन्हें कीचड़ से निर्लिप्त करता है । सूरज की तरह उगकर उसे अपने सहज स्वरूप में खिला देता है । यानी उसे वास्तविकता का सौरभ दे देता है। यह प्रक्रिया निष्क्रियता और जड़ता प्रदान करने की नहीं है। यह तो विकासशीलता का परिचय देती है ।
नाभि में कुण्डलिनि सोयी है। उसे जागृत कर ध्यान चक्रों का भेदन करवाता है। जब व्यक्ति ध्यान के द्वारा चक्रों का भेदन करता है, तो वह नीचे से ऊपर की यात्रा करता है। यह ऊर्ध्वारोहण है, एवरेस्ट की चढ़ाई है। षड्चक्रों का भेदन वास्तव में षड्लेश्याओं का भेदन है। इन चक्रों के पार है वीतरागता, जहाँ साधक को सुनाई देता है ब्रह्मनाद, कैवल्य का मधुरिम संगीत ।
ध्यान वस्तुतः आत्म-शक्ति की बैटरी को चार्ज करने का राजमार्ग है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम उस बेटरी को कब चालू करें, कब उसका उपयोग करें और उसकी शक्तियों का लाभ लें। आज न केवल बाहरी खतरे बढ़े हैं, वरन भीतरी खतरे भी बहुत बढ़-चढ़ गये हैं। सच्चाई तो यह है कि बाहर से भी ज्यादा भीतरी खतरे बढ़े हैं। इसलिए आज समस्याओं की पहेलियों को सुलझाने के लिए ध्यान अचूक है। हमें अधिक समय न मिले, तो दर-रोज सुबह चौबीस मिनट ध्यान अवश्य करें। शत्रुपक्ष की बातें छोड़ने की चेष्टा करें और अपने घर में सजी चीजों का आनन्द लें । घर लौटने का रस पैदा होते ही मन की एकाग्रता सधेगी।
रस जगना जरूरी है। 'रसो वै सः' वह रस रूप है । अपना घर तभी अच्छा लगेगा, जब इसके प्रति रसमयता जगेगी। रसमयता मन की एकाग्रता की नींव है। पिएँ हम रसमयता के प्याले-पर-प्याले, जिससे सफल हो सके ध्यान, पा सके हम ध्यान के जरिये अपने घर को, लक्ष्य को, मंजिल को। ।
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