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उसके लिए
1 साधक अहर्निश साधना के लिए ही कटिबद्ध होता है । समग्रता से बल-पराक्रम का प्रयोग करना साधक की पहचान है 1 अतः साधक को विराम और विश्राम कैसे शोभा देगा ? | प्रस्थान - केन्द्र से प्रस्थित होने के बाद उसका सम्मोहन और आकर्षण विसर्जित करना अनिवार्य है ।
( वान्त का आकर्षण पराजय का उत्सव है । पूर्व सम्बन्धों का स्मरण कर उनके लिए मुँह से लार टपकाना साधनात्मक धर्म की सीमा का अतिक्रमण है । यह तो त्यक्त प्रमत्तता एवं इन्द्रिय-विलासिता का पुनः अङ्गीकरण है ममत्व से मुक्त होना ही मुनित्व की प्रतिष्ठा है । / लालसा का प्रत्याशी तो पुनः संसार का ही आह्वान कर रहा है। स्वयं के धैर्य पर टिके रहना अनिवार्य है। साधक को चाहिये कि वह तृण-खण्ड की भाँति कामना के प्रवाह में प्रवाहित होने से स्वयं को बचाये । साधक उदबुद्ध रहे शाश्वत के लिए )
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