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साधक सत्य पथ का पथिक होता है । सत्य के साथ संघर्ष बिना अनुमति के हमसफर हो जाता है । साधक विराट् संकल्प का धनी होता है । उसे संघर्ष / परीषह से घबराना नहीं चाहिये, अपितु सहिष्णुता के बल पर उसे निष्फल और अपंग कर देना चाहिये । भगवान् ने कहा है कि परीषहों विघ्नों को न सहना कायरता है । परीषह - पराजय संकल्प- शैथिल्य की अभिव्यक्ति है । साध्य के बीज को अंकुरित करने के लिए अनुकूलता का जल ही आवश्यक नहीं है, अपितु परीषहमूलक प्रतिकूलता की धूप भी अपरिहार्य है । दोनों के सहयोग से ही बीज का वृक्ष प्रकट होता है ।
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साधक सहनशील होता है, (अतः वह निर्विवादतः समत्वयोगी भी होता है समत्व की गोद में ही धर्म का शैशव है । साधनागत अनुकूलताएँ बनाए रखने के लिए धर्मसंघ का अनुशासन भी उपादेय है ।
साधना के इन विभिन्न आयामों से गुजरना अनामय लक्ष्य को साधना है । आत्म-विजय ही परम लक्ष्य है । भगवान् ने इसे त्रैलोक्य की सर्वोच्च विजय माना है। शरीर, मन और इन्द्रियों को निगृहीत करने से ही यह विजय साकार होती है । फिर वह स्वयं ही सर्वोपरि सम्राट होता है । मुक्त हो जाता. है हर सम्भावित दासता से । इस विमल स्थिति का नाम ही मोक्ष है ।
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